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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Loktantra Ka Mahatva”, “लोकतंत्र का महत्त्व” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

लोकतंत्र का महत्त्व

Loktantra Ka Mahatva

                विश्व में अनेक शासन प्रणालियाँ हैं। उनमें लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन-प्रणाली मानी जाती है। अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र या प्रजातंत्र की परिभाषा इस प्रकार दी है- ‘‘लोकतंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा जनता का शासन हैं।’’

                जाॅर्ज बर्नार्ड शाॅ के शब्दों में- ‘‘प्रजातंत्र एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका लक्ष्य सभी लोगों का यथासंभव अधिक से अधिक कल्याण करना है।’’

                लोकतंत्रात्मक शासन-पद्धति में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि विधायिका में पहुंचकर जनहित का ध्यान रखते हुए शासन का संचालन करते हैं। भारत के लिए यह गर्व का विषय है कि यहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था को अपनाया गया।

                 भारत का लोकतंत्र विश्व का सबेस बड़ा लोकतंत्र है। भारत के मतदाता निरक्षर भले ही हों, पर वे मूर्ख नहीं हैं। उनमंे राजनैतिक चेतना का अभाव भी नहीं है। उन्होंने अनेक बार चुनाव में अनेक नेताओं और राजनीतिक दलों को धूल चटाई है। 1947 से 1967 तक कांग्रेंस का एकछत्र शासन चलता रहा। 1967 में भारत के मतदाताओं ने कांग्रेस को एक हल्का सा झटका दिया और उसे सचेत करने का प्रयास किया। तब कई प्रदेशों में साझा सरकारें बनीं। इन सरकारों के अधिकांश मुखिया कांग्रेस से बगावत करके निकले नेता ही थे। यह प्रयोग कुछ समय में ही असफल हो गया। 1975 में इंदिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल लगाकर भारत को लोकतंत्र की पटरी से उतारने का प्रयास किया। अठारह मास का यह तानाशाही शासन भारतीय लोकतंत्र पर कलंक था। भारतीय मतदाता आपातकाल की ज्यादतियों से तंग आ गया था, अतः 1977 के चुनाव में उसने कांग्रेस और इंदिरा गाँधी को पराजित करके लोकतंत्र की शक्ति की परिपक्वता का परिचय दे दिया। जनता पार्टी की सरकार का नेतृत्व मोरारजी देसाई ने संभाला। गुटों में बंटे नेताओं के क्षुद्र स्वार्थों ने भारतीय मतदाताओं की आशाओं पर पानी फेर दिया। निराश जनता ने 1980 में पुनः इंदिरा गाँधी को शासन की बागडोर सौंप दी। 1984 में इंदिरा गाँधी की नृशंस हत्या के पश्चात् लोगों ने राजीव गाँधी की ओर उत्साह भरी दृष्टि से देखा। बोफोर्स घोटाले के प्रति अपना असंतोष प्रकट करते हुए 1989 में राजीव गाँधी को भी पराजित कर दिखाया। तब वी.पी. ंिसंह के नेतृत्व में साझा सरकार बनी। यह सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा न कर सकी। राजीव गाँधी की नृशंस  हत्या से उपजी सहानुभूति ने एक बार कांग्रेस को पुनः शासन का अधिकार दे दिया। नरसिंह राव के प्रधानमंत्री रहते हुए अनेक घोटाले सामने आए। भ्रष्टाचार में अनेक नेता आकंठ डूब गए। तब जनता ने कांग्रेस को पुनः सबक सिखाया। 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार अस्तित्व में में आई, जिसे दो वर्ष से भी कम समय में दो प्रधानमंत्री बदलने पड़े। कांगे्रस ने इस सरकार पर अपना दबाव निरंतर बनाए रखा। फिर मध्यावधि चुनाव हुए और 1998 में सरकार बनाने का अवसर भारतीय जनता पार्टी को मिला। उसे भी 17-18 दलों का समर्थन पाने के लिए अनकी उचित-अनुचित माँगों को मानना पड़ा। अब ऐसा लगता है कि साझा सरकारों का युग आ गया है। इस प्रकार की सरकार पूरी शक्ति से अपने कार्यक्रमों को लागू नहीं कर पाती है।

                1999 में फिर से श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार का गठन हुआ। इसमें भारतीय जनता पार्टी मुख्य घटक थी तथा 16-17 अन्य छोटे-छोटे दल शामिल थे। इस प्रकार की गठबंधन सरकार को चलाना कोई आसान बात नहीं थी। सरकार के घटक दल ही कोई-न-कोई परेशानी पैदा करते थे, विपक्षी दल तो करते ही थे। इसके बावजूद उन दलों की अपनी मजबूरियाँ भी थीं। सत्ता पक्ष का समर्थन न करने पर सरकार गिर सकती थी तथा पुनः चुनाव होने की स्थिति का सामना करना पड़ता। इसे कोई नहीं चाहता था। सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। 2004 के चुनावों में एन.डी.ए. सरकार का पतन हो गया और कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) सरकार का गठन हुआ। इसके प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह बने।

                इस स्थिति के बावजूद भारत के लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल है। यह दौर (साझा सरकारांे का) कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाएगा। समान विचार वाले दलों का धु्रवीकरण हो रहा है। लोकतंत्र में समस्याएँ तो आती ही हैं, पर उनका समाधान भी निकल आता है। भारत के लोकतंत्र की सफलता के लिए भारत से गरीबी और अशिक्षा को दूर करना आवश्यक है। राजनीतिक दलों को भी अपने ऊपर आदर्श आचार संहिता लागू करनी होगी। चुनाव आयोग भी इस दिशा में सचेष्ट है। भारत का लोकतंत्र अब परीक्षा की घड़ी से गुजर चुका है। भारतीय मतदाताओं ने अनेक बार अपनी परिपक्वता का परिचय दिया है। भारतीय मतदाता अशिक्षित हो सकते हैं, पर अज्ञानी नहीं हैं।

 हमारा बिखरता हुआ पारिवारिक जीवन

                वर्तमान समय में हमारे पारिवारिक जीवन में निरंतर बिखराव आता चला जा रहा है। समय और आवश्यकता के अनुसार जीवन-मूल्यों में बदलाव आ रहा है और इसी के अनुरूप पारिवारिक जीवन का स्वरूप भी बदल रहा है। संयुक्त परिवार प्रथा को अब निरर्थक माना जाने लगा है। इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात कहा जा रहा है। अब छोटे-छोटे परिवारों का प्रचलन हो रहा है।

                प्राचीन काल से ही भारत में संयुक्त परिवार प्रथा को अपनाया जाता रहा है। संयुक्त परिवार के अपने लाभ रहे हैं। इसमें परिवार के सदस्य सुरक्षा भावना का अनुभव करते हैं। परिवार के प्रति साझा उत्तरदायित्व उनमें सामाजिकता का बोध जागृत रखता है। संतान के प्रति परिवार के सभी सदस्य सचेष्ट रहते हैं तथा उसके पालन-पोषण की समस्या संयुक्त परिवार में नहीं उठती। दुःख-तकलीफ का समय सुयुक्त परिवार में आसानी से निकल जाता है।

                अब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं अर्थात् पारिवारिक जीवन बिखर रहा है। परिवार समाज की इकाई है और परिवार का टूटना समाज का टूटना ही है। इस टूटन या बिखराव के पोछे पुरानी और नई पीढ़ी का संघर्ष है। आधुनिकता के नाम पर स्वच्छंद यौनाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि वर्जनशीलता गलत है तो उच्छृंखलता भी सही नहीं है।

                परिवार में बिखराव का एक अन्य सामान्य कारण भी है- लोगों पर स्वार्थ भावना का हावी होना। वर्तमान भौतिकवादी युग में कोई किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं रहना चाहता। सभी पर अपने-अपने स्वार्थ हावी हैं। सब को अपने सुख-चैन की चिंता है। लोगांे पर व्यक्तिवादी दृष्टिकोण हावी होता चला जा रहा है। पे्रम-विवाह भी परिवार के बिखरने का एक अन्य प्रमुख कारण है। प्रेमी-युगल स्वच्छंद जीवन जीना चाहता है। उन्हें यथार्थ जीवन का पता तो बहुत बाद में चलता है। प्रारंभ में तो वे काल्पनिक स्वर्ग में ही विचरण करते हैं।

                वर्तमान में स्थिति यह आ गई है कि एक ही परिवार के लोग आपस में खुलकर बात नहीं कर पाते। रिश्तों में खुलापन रह ही नहीं गया है। अब एक-दूसरे के सुख-दुःख की चर्चा तक नहीं हो पाती। परिवार में बिखराव और टूटन अधिक है। इस प्रकार पारिवारिक रिश्तों में एक प्रकार की जड़ता सी आ गई है।

                परिवार में बिखराव आने के कारणों की तह में जाना आवश्यक हो गया है। पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव हम पर हावी होता चला जा रहा है। इसमें ‘स्व’ या ‘अहं’ की प्रकृति तेजी से उभर रही है। परिवार या समाज के प्रति अपना कोई दायित्व समझता ही नहीं। परिवार के प्रति उत्तरदायित्व की भवना का लुप्त होना पारिवारिक बिखराव के लिए जिम्मेदार है।

                परिवार को संभालकर रखने का दायित्व नई पीढ़ी के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी पर भी है। पुरानी पीढ़ी को भी समय के अनुकूल स्वयं को परिवर्तित करना होगा। अब वह जमाना नहीं रह गया है कि आप अपनी मर्जी को परिवार के अन्य सदस्यों पर बलात् लादें। जो ऐसा करने का प्रयास करते हैं उनके परिवार टूट जाते हैं।

                पारिवारिक बिखराव का क्रम निरंतर जारी है। पुरानी पीढ़ी अपने संस्कारों और मर्यादाओं से बंधी है तो नई पीढ़ी पुरानी मान्यताओं पर कुठाराघात करने को उतारू है। इससे समाज और परिवार में विषमताएँ जन्म ले रही हैं। स्वतंत्रता के नाम पर समाज और परिवार के विघटन को स्वीकार करना आत्मघाती कदम होगा। हमें इस समस्या का तर्कसंगत उपाय शीघ्र खोजना होगा। दोनों पीढ़ियों को अपने-अपने दृष्टिकोण में समय और परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तन लाना होगा और सामंजस्य का मार्ग अपनाना होगा तभी इस पारिवारिक बिखराव को रोका जा सकता है।

                परिवार को बिखरने से बचाकर ही हम परिवार में वास्तविक रूप में सुख-समृद्धि ला सकंेगे। संयुक्त परिवार के अपने सुख हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि संयुक्त परिवार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगता है, पूर्णतः सत्य नहीं है। संयुक्त परिवार के स्वरूप में कुछ सामयिक परिवर्तन करने होंगे। आपसी प्रेम और सहयोग की भावना ही परिवार को बिखराव से बचा सकती है।

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