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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Dhan-Sangrah ke Labh”, “धन-संग्रह के लाभ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

धन-संग्रह के लाभ

Dhan-Sangrah ke Labh

                मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपने कार्यांे के लिए धन की आवश्यकता होती हे। कहने को तो सब कह देते हैं कि धन तुच्छ चीज़ है, धन का कोई सुख नहीं किंतु वास्तव में धन का सुख ही सच्चा सुख है। पैसे वाले का ही आदर होता है। निर्धन को कोई नहीं पूछता। धनहीन पूज्य व्यक्ति भी तुच्छ समझे जाते हैं। साधारण व्यक्ति की पूजा और आवभगत होती है। अवस्था में चाहे कोई कितना ही बड़ा हो, यदि उसके पास धन नहीं है तो बड़ा नहीं समझा जाता। किसी बात में उसकी सम्मति तक नहीं ली जाती, परंतु पैसे वाले छोटी आयु वाले व्यक्ति की भी बात-बात में पूछ होती है। धन हो तो प्रभाव, दबदबा, बड़प्पन, प्रतिष्ठा आवश्यकताओं की पूर्ति, अच्छा खान-पान, वस्त्र, मकान, सवारी आदि सब कुछ प्राप्त होता है, इसलिए सुखी वही है जिसके पास धन है अन्यथा दुःख ही दुख है।

                यदि कल्पना, आदर्श, भावना आदि बातों को एक ओर रख दिया जाए और यथार्थवादिता से काम लिया जाए तो पता चलता है धन का महत्व सच्चा है। रूपए-पैसे के बिना संसार में कोई भी काम नहीं हो सकता। इस पर विशेष विचार करके निश्चय करने की आवश्यकता है। संस्कृत के एक कवि ने ठीक ही लिखा है कि जब भूख लगती है तब व्याकरण को नहीं खाया जाता, जब प्यास लगती है तो कविता को नहीं पीया जाता, केवल मंत्र पाठ करके किसी ने अपने कुल का उद्धार नहीं किया, इसलिए लोगों, तुम धन को एकत्र करो, गुण सब निष्फल हैं। बड़े-बड़े गुणी पुरूष धन के अभाव में जगह-जगह मारे-मारे फिरते हैं और जन्म भर दुःख उठाते हैं। एक और कवि ने कहा है कि पैसा धर्म है, पैसा कर्म है, पैसा ही मोक्ष है, जिसके पास पैसा नहीं उसका सारा जीवन ‘हाय पैसा, हाय पैसा’ करते हुए बीतता है, क्योंकि हर समय पैसे की आवश्यकता पड़ती है, सब प्रकार की विद्याएँ धन के बिना निष्फल होती हैं। यह ठीक है कि विद्या तथा अन्य गुणों के द्वारा मनुष्य धन प्राप्त कर सकता है, परंतु जो धन प्राप्त नहीं कर सकता, उसका जीवन दुःखमय बीतता है। जिसके पास धन है, सब उसके साथ मित्रता करते हैं कि अमुक व्यक्ति हमारा रिश्तेदार है। उसे ही मनुष्य समझा जाता है, उसे ही पण्डित माना जाता है। निर्धन व्यक्ति के मित्र मित्रता छोड़ देते हैं। कुटुंबी जन कहते हैं- हाँ, हमारा साधारण परिचित व्यक्ति है, लोग कहते हैं अजी वह भी कोई आदमी है, वह तो महामूर्ख है। निर्धन को कोई अपने पास भी ठहरने नहीं देता।

                धन हो तो सब प्रकार के सुख स्वयंमेव प्राप्त हो जाते हैं। धनी पुरूष के दुर्गुण भी छिप जातेे हैं। अतः संसार में मान-सहित और सुखपूर्वक जीवन बिताने के लिए धन प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है। न दादा बड़ा है, न भाई बड़ा है, सबसे बड़ा धन ही है। धनी व्यक्ति का ही मान-सम्मान चला आ रहा है। इसीलिए तो यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गईः

‘‘दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रूपैया।’’

                यह स्पष्ट है कि जीवन जीने के लिए धन अनिवार्य है। शरीर को निरोग रखने तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की जरूरत पड़ती है।

                वर्तमान समय भौतिकतावादी है। इस युग में केवल धन का ही महत्त्व और प्रभुत्त्व है। धन के अभाव में व्यक्ति का कोई मान-सम्मान नहीं है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में उस व्यक्ति को बड़ा माना जाता था जो धन को लात मारता था। इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति में धनवान को ही बड़ा माना जाता है। अब यही पाश्चात्य प्रभाव हमारी संस्कृति पर हावी होता चला जा रहा है। अब हमारे यहाँ भी रूपए को सर्वोपरि माना जाने लगा है। ऐसी स्थिति निश्चय ही अत्यंत चिंताजनक है। धन को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देना पतन का संकेत है। यह सही है कि हमारे जीवन में धन अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है, पर वही सब कुछ नहीं हैः

                धन के साथ-साथ दर्प, कृपणता, भय, चिंता आदि अवगुण भी स्वयंमेव आ जाते हैं। मैथिलीशरण गुप्त कहते हैंः

‘‘सोना पाकर भी क्या सुुख से तू सोने पावेगी?

बड़ती हुई लालसा तुझको, कहाँ न ले जावोगी?’’

                धन के लालच में व्यक्ति निकृष्टतम तरीके अपनाने से भी नहीं चूकते। इसी धन-लिप्सा ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। धन के प्रभाव का वर्णन करते हुए कवि गिरधर ने कहा हैः

‘‘साईं या संसार में मतलब को व्यवहार।

जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताकौ यार।।’’

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