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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Badhua Majdoor ki Samasya”, “बंधुआ मजदूर की समस्या” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

बंधुआ मजदूर की समस्या

Badhua Majdoor ki Samasya

निबंध नंबर :- 01

                बंधुआ मजदूर वे होते हैं जिन्हें कोई व्यक्ति अपना काम करने के लिए विवश किए रहता है। इन व्यक्तियों का अपना स्वतंत्र जीवन नहीं होता। इन मजदूरों ने अपने मालिक से थोड़ा बहुत कर्ज लिया होता हैं और मालिक इन्हें बंधुआ मजदूर बना लेता है और इनसे मनचाहा काम करवाता है। कई बार तो किसी व्यक्ति की कई पीढ़ियाँ बंधुआ मजदूरी करते-करते बीत जाती है। इन मजदूरों के सिर पर चढ़ा कर्ज कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता। मजदूर की मजदूरी तो इस कर्ज के सूद में ही चली जाती है। यह कर्ज लाइलाज बीमारी की तरह बढ़ता चला जाता है। ये बंधुओ मजदूर खेतों पर, ईंटों के भट्टों पर कल-कारखानों में काम करते हुए मिल जाते हैं। यद्यपि अनेक स्थानों से इन बंधुओं मजदूरों को मुक्त कराया गया है, पर मुक्त कराना ही पर्याप्त नहीं है, इनका पुर्नवास कराना आवश्यक है। बंधुआ मजदूरों का जीवन नारकीय हो जाता है। उनका किसी भी प्रकार का विकास नहीं होता है। स्वामी अग्निवंश आदि लोग बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने की दिशा में सक्रिय हैं। उनके प्रयास सफल भी हो रहे हैं। पर अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

निबंध नंबर :- 02

मजदूर की समस्या

Majdoor ki Samasya

भारत में श्रम जीवी मजदूर की समस्या भी एक तरह की महत्त्वपूर्ण समस्या है। बेचारा मजदूर दिन भर कठिन परिश्रम करता है; पर स्वयं जीने के प्राथमिक साधन तक नहीं जुटा पाता।  कठोर परिश्रम कराने और हाड़-तोड काम करने के बाद भी अक्सर लोग उसके काम में तो कतर-व्योंत करते ही हैं, उस के साथ पहले से निश्चित या निर्धारित की गई मजदूरी में भी कतर-व्योंत करने का प्रयास करते हैं। आम तौर पर दूसरों के अन्न जटा कर भी स्वय उसे भूखे या आधे पेट खाकर रहना पड़ता है। दूसरों के लिए सुन्दर-से-सुन्दर वस्त्र बनाकर भी वह स्वयं नंगा ही गर्मी-सर्दी की मार सहता है या फिर अधिक-से-अधिक किसी झोंपड़ पट्टी में टूटी-फूटी झोंपड़ी ही जुटा पाता है। दूसरों के लिए कई-कई मंजिले भवनों का निर्माण कर के भी उस निर्माता के पास अपने सिर ढकने के लिए जगह नहीं होती। इसी तरह की कई प्रकार की सुघर उपभोक्ता सामग्रियों का निर्माण कर के भी बेचारे मजदूर को स्वयं अपना सारा जीवन फुटपाथों पर बिना साजो-सामान के गुजार देना पड़ता है। हर तरह से मजदूर-श्रमिक का अपना जीवन एक जीती-जागती समस्या बना रहता है।

बेचारे मजदूर अपनी पत्नियों के साथ जब काम पर जुटे होते हैं, उनके गोद के बच्चे धूप-छाँव की परवाह किए बिना नंगी और खुरदरी धरती पर मात्र एक चीथड़े पर पड़े रोते रहते हैं। कुछ बड़े बच्चे भूखे-प्यासे और नंग-धडंग से उनके आस-पास ही मंडराया करते हैं। उन के लिए काम के समय में भी अपने बच्चों को किसी सुरक्षित स्थान पर रख पाने की समाज और सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं कर रखी होती। ठेकेदार उन का शोषण अलग करते हैं। उन की गन्दी नज़र युवा मजदूरिनों के तन पर भी गढी रहती है। पुरुषों से अधिक काम करने पर भी स्त्री-पुरुष की मजदूरी में भेद किया जाता है। विवश भाव से उन्हें इस प्रकार के सभी अन्याय-अत्याचार मौन भाव से सहन करने पड़ते हैं।

भारतवर्ष में ही क्या, संसार भर में मजदूरों के दो प्रमुख वर्ग माने जाते हैं। एक सगठित वर्ग, दूसरा असंगठित वर्ग। ऊपर जिन स्थितियों और समस्याओं की ओर संकेत किया गया है, वे मुख्य रूप से असंगठित मजदूर वर्ग की ही हैं। इस वर्ग का कहीं कोई पूछने वाला नहीं। इनके लिए कहीं कोई सुनने वाला श्रम-न्यायालय आदि नहीं है। कोई दल और इस का नेता भी कभी असंठित मजदूर वर्ग की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्न नहीं किया करता। सभी इन का शोषण ही करते या करना चाहते हैं। कभी-कभी इस असंगठित वर्ग की यूनियन या संस्था बनाने का प्रयास अवश्य होता रहता है, पर पहले तो ऐसे प्रयास को सफल नहीं होने दिया जाता, यानि यूनियन आदि बनने नई दी जाती, फिर इस वर्ग का कार्य स्थल आज कहीं, कल कहीं और होने के कारण व नहीं पाती। यदि कोई छुटभैया नेता कहीं कुछ जोड़-तोड़ बैठाकर बना भी लेता है तो वह कुछ समय बाद तरह-तरह की बहानेबाजी मार के उन्हीं का शोषण कर अपना भरना आरम्भ कर देता है। फलतः इन बेचारों को शोषण का शिकार होते ही रहना पर है। फिर यह भी तो निश्चित नहीं होता कि इस वर्ग के मजदूरों को प्रतिदिन काम मिल ही जाएगा। प्रायः प्रतिदिन काम नहीं मिला करता।

दूसरे संगठित मजदूर वर्ग की हालत इस से कहीं बेहतर हुआ करती है। एक तो ये लोग मजदूरी ही संगठित क्षेत्रों में किया करते हैं, इस कारण इन्हें प्रायः हर रोज काम मिलता ही रहता है। दूसरे इस वर्ग की अपनी यूनियनें बनी रहती हैं। छुटभैया हो या बड़े, इनकी यूनियनों की बागडोर प्रायः जुझारन नेताओं के हाथों में रहा करती हैं। यद्यपि अपने स्वार्थ वे भी तरह-तरह से साधा करते हैं, फिर भी कामबन्दी जैसी धमकियाँ दे दिला कर मजदूर वर्ग को भी काम का उचित समय, साप्ताहिक छुट्टी, त्योहार-बोनस और स्वास्थ्य-सेवा जैसी कुछ सुविधाएँ दिलाते रहते हैं। कहीं-कहीं रहने के लिए क्वाटरों की व्यवस्था भी हो जाती है। दुर्घटना आदि होने पर इन्हें प्रायः मुआवजा भी दिलाया जाता है जबकि असंगठित क्षेत्रों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं। आवश्यकता पड़ने पर इन्हें कुछ एडवांस आदि भी मिल जाया करता है जबकि असंगठित क्षेत्र के मजदूर को एडवांस जैसा कुछ लेने पर प्रायः बन्धुआ बन कर रह जाना पड़ता है। इस तरह संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की मूल समस्याएँ लगभग एक होते हुए भी दोनों की स्थिति में क्षेत्र के अनुसार बुनियादी अन्तर बना ही रहता है।

संगठित क्षेत्रों का मजदूर वर्ग प्रायः एक स्थान पर रहता है, इस कारण उसके बच्चे चाहने और कोशिश करने पर पढ़-लिख सकते हैं, पर असंगठित वर्ग के मजदूर बच्चों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था एवं सुविधा न तो है ही और न संभव ही हो सकती है। अतः इस वर्ग का बालक बड़ा होकर प्रायः इन्हीं की तरह का अनपढ़-अशिक्षित, समस्याओं से जूझता और निरन्तर शोषित होता हुआ मजदूर ही बना रहता है। भारत सरकार या किसी भी राजनैतिक दल, यहाँ तक कि अपने-आप को श्रमिक वर्ग का दल कहने वाले साम्यवादी दलों के पास भी इनकी इस तरह की समस्याएँ सुलझाने के लिए कहीं कोई व्यवस्था एवं योजना नहीं है।

इन यथार्थ तथ्यों के आलोक में हमारा कहना यह है कि असंगठित मजदूर वर्ग को भी किसी तरह संगठित करके उन की यूनियन आदि बनाई जानी चाहिए। सरकार को उनकी समस्याओं की ओर भी ध्यान देकर कम-से-कम उनकी बुनियादी आवश्यकताएँ।

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