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Hindi Essay on “Yadi mein Police Adhikari Hota”, “यदि मैं पुलिस अधिकारी होता” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

यदि मैं पुलिस अधिकारी होता

Yadi mein Police Adhikari Hota

निबंध नंबर : 01

प्रस्तावना : वह क्या बनना चाहता है ? यह प्रश्न शैशवकाल से ही हर व्यक्ति के मन में उभर आता  है। मेरे मन रूपी आकाश में भी ऐसे ही प्रश्नों ने खूब चक्कर काटे हैं। मैंने तभी से पुलिस अधिकारी बनने का निश्चय कर लिया था। उसका रौबदार चेहरा और शानदार वर्दी हमेशा आकर्षित करती रहती थी; पर इंसान की सभी इच्छाएँ तो कभी पूर्ण नहीं हो पाती है। उनकी पूर्ति में कोई न कोई बाधा अवश्य आ जाती है। फिर मैं ठहरा एक व्यापारी का बेटा । मेरे भाग्य में तो पैतृकं व्यवसाय ही लिखा है। परिवार के हर सदस्य ने बार-बार यही मंत्र फूका है। मैं भी यही सोचता हूँ कि यदि उन सब की बात को ठुकरा कर यदि मैं पुलिस अधिकारी बन भी गया, तो समाज की सेवा में मेरा क्या योगदान रहेगा।

वर्तमान समाज की दृष्टि में : आज के समाज में पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इन लोगों को समाज के रक्षक के स्थान पर भक्षक माना जाता है। प्रायः देखा गया है कि भ्रष्ट पुलिस अधिकारी अपनी जेबें गरम करके असामाजिक तत्वों को बढ़ावा देते पाए गए हैं। चोरी करना और डकैती डलवाना ही मानो इनका काम रह गया है। निर्दोष इनकी हवालात की सैर करते हैं और गुण्डे बेधड़क घूमते हैं। पैसे के आगे माँ बेटी की इज्जत भी तुच्छ समझी जाती है। इसीलिए अधिकांश लोग इन्हें वर्दीधारी गुंडों की संज्ञा देते हैं।

यदि पुलिस अधिकारी बनता : यदि मेरी इच्छा पूर्ण हो जाती। और मुझे पुलिस अधिकारी की वर्दी मिल जाती, तो मैं समाज के प्रति अपने दायित्व को निभाता। मैं अपने क्षेत्र से गुण्डों का सफाया कर देता। इस अभियान में मैं अपनी जान की भी प्रवाह नहीं करता। असामाजिक तत्त्व मुझसे सदा ही भयभीत रहते। मैं अपराधियों को कभी भी माफ नहीं करता और उनके कुकृत्यों का दंड दिलवा कर ही पीछा छोड़ता।

यदि मैं पुलिस अधिकारी बनता, तो कदापि घूस नहीं लेता। जबकि आजकल पुलिस स्टेशन में बापू के चित्र के नीचे ही उनके आदर्शों को भुलाकर जेबें गरम की जाती हैं। निर्धन और दु:खी लोगों को बेवकूफ समझा जाता है तथा पलिस अधिकारी उनकी बात नहीं। सुनते। मैं सबसे पहले असहाय और निर्धन लोगों की शिकायतें सुनता तथा उन्हें दूर करने का भरसक प्रयास करता।

पुलिस का आतंक : उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों में पुलिस का आतंक दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। मेरठ का माया त्यागी कापट पलिस की पाशविकता की अमिट गाथा बन गया है। बिहार की ग्रामीण महिलाओं का सामूहिक रूप से शील भंग करना पुलिस का जन्मसिद्ध अधिकार बन गया है। हाल ही में बनारस में निर्दोषों की तोड़ी गईं अस्थियाँ और उनके हथकरघे पुलिस की पाशविकता की कहानी कह रहे हैं। इतना ही नहीं, इनकी माँग की पूर्ति न करने पर निर्दोषों को पीट-पीट कर यमलोक पहुँचा दिया जाता है। घरों को लुटवाकर आग लगवा दी जाती है।

उपसंहार : आज के युग में जनता भी उन्हें पसंद नहीं करती। उनकी गिद्ध दृष्टि के आगे अपने को असहाय समझती है; लेकिन मैं । पुलिस अधिकारी बनकर ऐसा नहीं होने देता। मैं महिला समाज को पूरा सम्मान दिलाता। अभद्र व्यवहार करने वालों को दण्डित करता। बनावटी मुठभेड़ों में निर्दोषों की हत्या नहीं करने देता। अपराधियों के लिए साक्षात् यमदूत बन जाता। इस तरह मैं स्वयं अन्य पुलिस अधिकारियों के लिए आदर्श बन जाता।

निबंध नंबर : 02

यदि मैं पुलिस अधिकारी होता

Yadi mein Police Adhikari Hota

आज के युग में एक पुलिस अधिकारी होना बहुत बड़ी बात समझी जाती है। कर इसलिए नहीं कि पुलिस अधिकारी बने व्यक्ति के पास कई प्रकार के अधिकार होते है। उन अधिकारों का उपयोग कर के वह जीवन और समाज को सुरक्षा तो प्रदान कर ही सकता है, समाज सेवा के अनेकविध कार्य भी सम्पादित कर-करा सकता है। वह हर प्रकार की अराजकता और अराजक तत्त्वों पर अंकुश लगाने में सफल हो सकता या हो जाया करता है। नहीं, आज का पुलिस अधिकारी इतना ही दूध का धूला नहीं हुआ करता कि जो कोई व्यक्ति वह सब बनना चाहे।

वास्तव में आज जो एक पुलिस अधिकारी होना बड़ी बात समझी जाती और लोग वैसा बनना चाहते हैं, वह इसलिए कि पुलिस अधिकारी कई प्रकार के अधिकार प्राप्त एक वर्दीधारी व्यक्ति होता है। सामाजिक-असामाजिक सभी तरह के तत्त्व उससे खूब दबते और उस का मान-सम्मान करते हैं। मोटी तनख्वाह के साथ-साथ उसकी दस्तूरी या ऊपर की आमदनी भी काफी मोटी होती है। यों असामाजिक तत्त्व उसे अपनी जेब में लिये घूमा करते हैं, पर प्रत्येक असामाजिक या अनैतिक कार्य से होने वाली आय का एक निश्चित हिस्सा नियमपूर्वक उसके पास पहुँचता रहता है। उसकी तरफ को कोई उँगली तक नहीं उठा सकता। जिसे चाहे बन्द कर-करवा दे, जिसे चाहे छुड़वा दे और छुट्टा घूमने दे। आप ही सोचिए, जब एक सब इन्स्पैक्टर रैंक का अधिकारी अपनी आलमारी में सैंकड़ों सूट, पत्नी की सैंकड़ों साड़ियाँ, दो-तीन लाख रुपये, बैठक में हर तरह का इम्पोर्टिड सामान रख सकता है; एक हवलदार के घर से बढ़िया बादामों की पूरी बोरी बरामद हो सकती है, तो फिर पुलिस के बड़े अधिकारी के पास क्या-कुछ नहीं होगा? इन्हीं कारणों से पुलिस अधिकारी होना बहुत बड़ी बात समझी जाती है।

लेकिन नहीं, मेरे मन में पुलिस अधिकारी बनने की बात तो बार-बार आती है: पर उसके पीछे ऊपर बताया गया कोई कारण कतई नहीं है। मैं अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर सुविधा सम्पन्न व्यक्ति कदापि नहीं बनना चाहता। मैं नहीं चाहता कि मेरा लड़का बुलेट मोटर साइकिल पर दनदनाता हुआ जिस किसी पर भी रोब गाँठता फिरे। मेरी लड़की कार में कॉलेज-स्कूल और पत्नी विदेशी कार में बाजार करने जाए। मैं यह भी नहीं चाहता कि समाज के इज्जतदार आदमी डर कर मुझे सलाम करें और बहुमूल्य उपहार भेजें। इसके साथ यह भी नहीं चाहता कि अराजक और गुण्डा-तत्त्व मुझे अपनी जेब में समझ या मान कर छुट्टे घूमते रह कर जन-जीवन को आतंकित करते फिरे। माफिया तत्त्व नशे के नाम पर जहर और मौत बेचकर अपनी आय का एक नियमित हिस्सा मेरे घर पहुँचाते रहें। नहीं, मैं यह भी कदापि नहीं देख और चाह सकता कि स्मगलर और काला-धन्धा करने वाले मुझे खुश करके या मेरे मातहत काम करने वालों को लुभा कर देश की अर्थ-व्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ करते रहें। सच, यदि मैं पुलिस अधिकारी होता तो कम-से-कम अपने अधिकार क्षेत्र में तो ऐसा कुछ भी नहीं होने देता।

आज हमारे पुलिस के महकमे पर कर्तव्यहीनता, आम जनों की उपेक्षा, अराजक तत्त्वों को संरक्षण देने, अन्याय-अत्याचार को बढ़ने देने, जन आक्रोश के समय संयम और बद्धिमत्ता से काम न लेने, प्रदर्शन कर रहे जन समूह पर बिना प्रयोजन और बिना चेतावनी दिए हुए. मात्र प्रतिक्रियावादी बन कर बदले की भावना से लाठी-गोली चलवा देने निरीह स्त्रियों के साथ बलात्कार करने, निरपराध लोगों, को थाने में बन्द करवा छोड़ने के लिए रिश्वत माँगने और न दे पाने पर झूठमूठ के अपराध कबूलवाने के लिए थर्ड डिग्री का प्रयोग करने, बनावटी मुठ-भेड दिखा कर बेगुनाह लोगों को मार डालने, चोरों-डकैतों को तो जान-बूझकर न पकड़ने, थाने में आम आदमियों द्वारा की गई शिकायतों की प्राथमिक रिपोर्ट बिना घूस खाए न लिखने जैसे जाने कितनी प्रकार की शिकायतें की जाती हैं, सुनने को मिलती हैं। मुझे पता है कि उनमें पूर्णतया सच्चाई है। अतः यदि मैं पुलिस अधिकारी बन जाऊँ, तो लगातार परिश्रम करके, उचित-अनुचित का ध्यान रख और विवेक से काम लेकर इस प्रकार की सभी शिकायतों को अवश्य ही जड़-मूल से मिटा देता।

आजकल अक्सर होता क्या है कि पुलिस की वर्दी पहनते ही आदमी अपने-आप को खुदा, बाकी लोगों से अलग और जनता का स्वामी मानने लगता है, फिर चाहे वह वर्दी थाने के चपरासी या आम सिपाही की ही क्यों न हो। मैं यदि पुलिस अधिकारी होता; तो इस हीन-ग्रंथि को, इस प्रवृत्ति को जड-मूल से ही उखाड़ फेंकता। पुलिस में आने वाले प्रत्येक छोटे-बड़े व्यक्ति को यह व्यावहारिक रूप से अच्छी तरह समझने का प्रयत्न करता कि वर्दी पहन लेने वाला व्यक्ति न तो विशिष्ट हो जाता है और न अन्य सामाजिक प्राणियों से अलग ही। पुलिस में होना उसी प्रकार की जन-सेवा का कार्य है जैसा कि किसी अन्य महकमे का हआ करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं पुलिस अधिकारी बन कर उस समूची मानसिकता को बदलने का प्रयास करता कि जिस कारण हमारे स्वतंत्र आर जनंतत्री देश की पलिस स्वतंत्र और सभ्य, सुसंस्कृत देशों जैसी नहीं लगती। वर्तमान मानसिकता-परिवर्तन बहुत जरूरी है।

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commentscomments

  1. Aditi says:

    This is so nice matter of vigyapan

  2. Saksham sinha says:

    Very nice👍👍👍👍👍👍👍keep it up

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