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Hindi Essay on “Sumitranandan Pant” , ”सुमित्रानंदन पंत” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

सुमित्रानंदन पंत

Sumitranandan Pant

प्रकृति और शरीर-स्वभाग से सुकुमार, कोमल-कान्त व्यक्तित्व के महाकवि-पंत। छायावादी काव्यधारा के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तर प्रदेश (वर्तमान उत्तराखंड) के अल्मोड़ा जिले में बसे कॉलोनी नामक ग्राम में, सन 1900 में हुआ था। वह स्थान प्रकृति की गोद में बसा हुआ है। प्रकृति ने ही पंत जी को पाल-पोसकर बड़ा किया था। अभी अबोधा शिशु में ही  इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। अत: बचपन में ही घर से दूर निकल घंटों घने जंगलों में बैठ प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते रहते। इसी कारण इनकी कविता में प्रकृति वर्णन को प्रधानता तो मिली ही, उसका चित्रण भी अत्यंत संजीव और स्वाभाविक बन पड़ा है। वह ध्वन्यात्मकता, चित्रभ्यता आदि गुणों के कारण अपने आप में अजोड़ भी स्वीकारा जाता है।

इनकी आरंभिक शिक्षा अपने पैतृक गांव में ही हुई। सुंदर और शर्मीले स्वभाग होने के कारण साथी छात्र इन्हें ‘लडक़ी’ कहकर चिढ़ाया करते थे। बाद में उच्च शिक्षा के लिए प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए। अभी इंटरमीडिएट ही पास किया था कि गांधी जी का आह्वान सुनकर विश्वविद्यालय की शिक्षा त्याग दी। परंतु स्वतंत्र रूप से संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला साहित्य का अध्ययन निरंतर करते रहे। भारतीय और विदेशी दर्शन-शास्त्रों का भी इन्होंने गहरा अध्ययन किया। कुछ दिनों तक पांडिचेरी स्थित अरविंद आश्रम में निवास करने रहे। इस निवास-काल में इन्होंने अरविंद दर्शन का गहरा अध्ययन किया, जिसका प्रभाव इनके परवर्ती काव्यों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। विभिन्न प्रभावों के कारण ही समय-समय पर इनकी काव्य चेतना और स्वरूप में भी इनके प्रकार के मोड़ आते रहे हैं। उनके कारण इनके काव्य और व्यक्तित्व को नए आयाम प्राप्त हो सके हैं।

पंतजी जब छात्र थे, तभी कविता रचने लगे थे और छायावादी युवा कवि के रूप में प्रसिद्धि भी पाने लगे थे। इनकी कविता का आरंभ तो विशुद्ध प्रकृति चित्रण से हुआ, परंतु बाद में माक्र्सवाद, मानवतावाद, अरविंद-दर्शन और विशुद्ध जनवाद के अनेक पड़ावों से गुजरते हुए घूम-फिरकर फिर प्रकृतिवाद पर ही आ गए। परंतु चाहे वे किसी भी वाद या प्रभाव-विशेष से प्रेरित होकर कविता करते रहे हों, प्रकृति ने इनका साथ कभी नहीं छोड़ा। वह हमेशा अविवाहित पंज जी की जीवन सहचरी बनकर उनके साथ ही रही। वही वस्तुत: इनकी प्राण और प्रेरणा थी। उसी ने पंत को पंत बनाकर विशेष गौरव दिलाया।

वाणी, उछवास, ग्रंथि, गुंजन ये इनके प्रथम चरण के अर्थात प्रकृतिवादी कवि पंत के प्रकृति-चित्रण से संबंधित प्रमुख काव्य हैं। इस काल में प्रकृति को त्याग और किसी का भी संग-साथ इन्हें गंवारा नहीं था। तभी तो इन्होंने कहा :

‘छोड़ द्रुमों की मृदु छाया

तोड़ प्रकृति से भी माया

बाले, तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन?’

इसके बाद इनकी कविता का दूरा चरण ‘गुंजन’ में संकलित ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से आरंभ होता है। अब वे माक्र्सवाद की सामाजिक चेतना से प्रभावित दिखाई देते हैं। उनकी ‘ग्राम्या’, ‘युर्गात’ और ‘युगवाणी’ नामक रचनांए इसी प्रकार की हैं। इसके बाद की ‘स्वर्ण किरण’ और ‘अमित्ता’ नामक रचनांए अरविंद-दर्शन से प्रभावित कही जा सकती हैं। सभी दर्शनों के समन्वय का प्रयास करते हुए पंत जी हमें मानवतावाद के विशुद्ध का स्वरूप समर्थन करते हुए दीखने लगते हैं। ‘लोकायतन’ नामक रचना में इनका मानवतावादी स्वरूप स्पष्ट देखा जा सकता है। इसके बाद ये पुन: अपने मूल-अर्थात प्रकृति की ओर लौटते हुए दीख पड़ते हैं जो कि उनकी मूल प्रेरणा स्त्रोत भी हैं।

पंत जी की अन्य रचनाओं के नाम हैं-पल्लविनी, कला और बूढ़ा चांद, मधुज्वाल, मानसी, रजत शिखर और वाणी। ‘चिदंबरा’ में इनकी प्रतिनिधि रचनाएं संकलित हैं, जिस पर इन्हे ंभारतीय ज्ञानपीठ का सर्वोच्चे पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इसी प्रकार ‘लोकायतन’ पर इन्हें रूप ने ‘नेहरू-शांति पुरस्कार’ प्रदान किया था। इनकी अंतिम रचना का नाम ‘सत्यकाम’ है। निश्च ही पंत जी महान कवि थे। पर अपनी भाषा-भावना की संभ्राततां के कारण न तो वे कोमल-कांत भावनाओं के कुशल चितेरे के रूप में अंग्रेजी की कीट्स, शेले, वर्डस्वर्थ, बॉयरन आदि के समान ही इनका नाम साहित्य जगत में हमेशा अमर रहेगा। हिंदी के इस महाकवि की तुलना अंग्रेजी के उपर्युक्त कवियों से ही की गई और की भी जा सकती है। वे इन सबसे कम नहीं थे। वे आजीवन कुंवारे रहकर काव्य-साधना करके चिर अमर हो गए हैं। कविता ही इनका घर-परिवार और सर्वस्व रहा।

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