Home » Languages » Hindi (Sr. Secondary) » Hindi Essay on “Karat-Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujaan” , ”करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

Hindi Essay on “Karat-Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujaan” , ”करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

 

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujaan

Best 8 Essay on ” Karat Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujaan”

निबंध नंबर : 01 

कविवर वृंद के रचे दोहे की एक पंक्ति वास्तव में निरंतर परिश्रम का महत्व बताने वाली है। साथ ही निरंतर परिश्रम करने वाला व्यक्ति के लिए अनिवार्य सफलता प्रदान करने वाली है दोहे की यह पंक्ति। पूरा दोहा इस प्रकार है :-

‘करत -करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।’

इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि निरंतर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है। असफलता के माथे में कील ठोककर सफलता पाई जा सकती है। जैसे कूंए की जगत पर लगी सिल (शिला) पानी खाींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पडऩे से घिसकर उस पर निशान अंकित हो जाया करता है। उसी तरह निरंतर और बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निठल्ला और जड़-बुद्धि समझा जाने वाला व्यक्ति भी कुछ करने योज्य बन सकता है। सफलता और सिद्धि का स्पर्श कर सकता है। हमारे विचार में कवि ने अपने जीवन के अनुभवों के सार-तत्व के रूप में ही इस तरह की बात कही है। हमारा अपना भी विश्वास है कि कथित भाव ओर विचार सर्वथा अनुभव-सिद्ध ही है।

ऐसे किंदवतीं अवश्य प्रचलित है कि कविवर कालिदास कवित्व-शक्ति प्राप्त करने से पहले निपट जड़मति वाले ही थे। कहा जाता है कि वन में एक वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे, इस बात की चिंता किए बिना कि कट कर गिरने पर उन्हें चोट आ सकती या मृत्यु भी हो सकती है। उसी डाली को काट रहे थे। विद्योतमा नामक विदुषी राजकन्या का मान भंग करने का षडय़ंत्र कर रहे तथाकथित विद्वान वर्ग को वह व्यक्ति (कालिदास) सर्वाधिक जड़मति और मूख लगा। सो वे उसे ही कुछ लाभ-लालच दें, कुछ ऊटपटांक सिखा-पढ़ा, महापंडित के वेश में सजा-धजाकर राजदरबार में विदुषी राजकन्या विद्योत्मा से शास्त्रार्थ करने के लिए ले गए। उस मूर्ख के ऊटपटांग मौन संकेतों की मनमानी व्याख्या षडय़ंत्रकारियों ने एक विदुषी से विवाह करा दिया। लेकिन प्रथम रात्रि को वास्तविकता प्रकट हो जाने पर पत्नी के ताने से घायल होकर ज्यों घर से निकले कठिन परिश्रम और निरंतर साधना रूपी रस्सी के आने-जाने से घिस-घिसकर महाकवि कालिदास बनकर घर लौटे। स्पष्ट है कि निरंतर अभ्यास ने तपाकर उनकी जड़मति को पिघलाकर बहा दिया। जो बाकी बचा था, वह खरा सोना था।

विश्व के इतिहास में और भी इसी प्रकार के कई उदाहरण खोजे एंव दिए जा सकते हैं। हमें अपने आस-पास के प्राय: सभी जीवन-क्षेत्रों में इस प्रकार के लोग मिल जाते हैं कि जो देखने-सुनने में निपट अनाड़ी और मूर्ख प्रतीत होते हैं। वे अक्सर इधर-उधर मारे-मारे भटकते भी रहते हैं। फिर भी हार न मान अपनी वह सुनियोजित भटकन अनवरत जारी रखा करते हैं। तब एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि जब अपने अनवरत अध्यवसाय से निखरा उनका रंग-रूप देखकर प्राय दंग रह जाना पड़ता है। इससे साफ प्रकट है कि विश्व में जो आगे बढ़ते हैं किसी क्षेत्र में प्रगति और विकास किया करते हैं, वे किसी अन्य लोक के प्राणी न होकर इस हमारी धरती के हमारे ही आस-पास के लोग हुआ करते हैं। बस, अंतर यह होता है कि वे एक-दो बार की हार या असफलता से निराश एंवा चुप होकर नहीं बैठ जाया करते। बल्कि निरंतर, उन हारों-असफलताओं से टकराते हैं और एक दिन उनकी चूर-चूर कर विजय या असफलता के सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई देकर सभी काो चकित-विस्मित कर दिया करते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट कर देते हैं, अपने व्यवहार और असफलता से कि वास्तव में संकल्पवान व्यक्ति के शब्दकोश से असंभव नाम का कोई शब्द नहीं हुआ करता।

इसलिए मनुष्य को कभी भी-किसी भी स्थिति में हार मानकर, निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अपने अध्यवसाय-रूपी रस्सी को समय की शिला पर निरंतर रगड़ते रहना चाहिए। तब तक निरंतर ऐसे करते रहना चाहिए कि जब तक कर्म की रस्सी की विघ्न-बाधा या असफलता की शिला पर घिसकर उनकी सफलता का चिन्ह स्पष्ट न झलकने लगे। मानव, प्रगति का इतिहास गवाह है कि आज तक जाने कितनी शिलाओं को अपने निरंतर अभ्यास से घिसते आकर, बर्फ की कितनी दीवारें पिघलाकर वह आज की उन्नत दशा में पहुंच पाया है। यदि वह हार मानकर या एक-दो बार की असफलता से ही घबराकर निराश बैठे रहता, तो अभी तक आदिमकाल की अंधेरी गुफाओं और बीहड़ वनों में ही भटक रहा होता। लेकिन यह न तब संभव था और प्राप्त स्थिति पर ही संतुष्ट होकर बैठे रहना न आज ही मानव के लिए संभव है।

 

निबंध नंबर : 02

 

करत-करत अभ्यास के

मध्यकालीन हिंदी-काव्य (रीतिकाल) के एक प्रसिद्ध नीतिवान और अनुभवी कवि वृंद की यह उक्ति अपने पूर्ण रूप में इस प्रकार है :

‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।।’

अर्थात जिस प्रकार कुंए की जगत के पत्थर पर कोमल रस्सी की बार-बार रगड़ पडऩे से वह घिसकर निशान वाला हो जाता है, उसी प्रकार निरंतर अभ्यास और परिरम करने वाला जड़ या असमर्थ व्यक्ति भी एक न एक दिन सफलता अवश्य पा लेता है। सचमुच, कवि वृंद ने बड़ी ही अनुभव सिद्ध और मार्के की बात कही है। इस उक्ति के माध्यम से उन्होंने बताया है कि अभ्यासी और परिश्रमी व्यक्ति के लिए जीवन में कुछ भी कर पाना असंभव या कठिन नहीं हुआ करता। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति लगन के साथ निरंतर चलता रहेगा, तो एक न एक दिन अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाएगा। यह अनुभवसिद्ध बात है। कुछ पाने के लिए केवल अच्छा इरादा ही काफी नहीं हुआ करता, उसके लिए निरंतर परिश्रम और अभ्यास भी आवश्यक हुआ करता है। कहावत है कि कुंआ प्यासे के पास चलकर नहीं आया करता, प्यासे को ही चलकर उसके पास पहुंचना पड़ता है। यह चलना ही अभ्यास ओर परिश्रम-रूपी रस्सी है जो सिल यानी पत्थर पर भी सफलता के निशान छोड़ जाया करती है। अत: निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। यह निंरतर अभ्यास ही सफलता पाने की कुंजी है। अभ्यास-निरत व्यक्ति को सफल होने पर कोई नहीं रोक सकता।

कहावत क्या, अनुभव सिद्ध बात है कि रगडऩे से ही पत्थर में से आग और तिलों में से तेल पैदा हुआ करते हैं। किसी प्रकार सामान्य बुद्धि, शक्ति और स्वल्प साधनों वाला व्यक्ति भी जब कुछ करने का इरादा बना तदुनुरूप कार्य आरंभ कर देता है, तो प्राय: चमत्कारपूर्ण परिणाम सामने आया करते हैं। मंजिल केवल तेज चाल वाले खरगोशों के लिए ही नहीं हुआ करती। वे यों अक्सर अपनी तेजी से शेखी में भटक जाया करते हैं। मंद चाल होने पर भी निरंतर चलते रहने वाले कछुए अक्सर मंजिल पर पहुंच सफलता के आनंद का पारितोषित पाया करते हैं। खरगोश-कछुए की यह प्रचलित नीति-कथा भी यही सिद्ध करता है कि ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।’ अत: आज से ही सब प्रकार के आलस्य और भय त्यागकर धीरे-धीरे सही, चल पडि़ए। सफलता की मंजिल बड़ी बेताबी से चलने वालों की राह देखा करती है।

उपर्युक्त सूक्ति में कवि मात्र यही कहना चाहता है कि जीवन निरंतर सजग रहकर निरंतर चलते रहने अर्थात परिश्रम करने वालों का ही हुआ करता है। एक बार की हार या जड़ता की अनुभूति से बैठे रहने वाले साधनों की सुलभता में भी सफल नहीं हुआ करते।

 

निबंध नंबर : 03

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

                कवि ने कहा है-

                                करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान।

                अर्थात् कुएँ के पत्थर पर बार-बार रस्सी को खींचने से निशान पड़ जाते हैं, इसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी बुद्विमान हो सकता है। इन पंक्तियों मे कवि ने अभ्यास के महत्व पर बल दिया है और इसमें सन्देह भी नहीं कि निरन्तर अभ्यास से भाग्य को भी बदला जा सकता है। पत्थर जैसा कठोर पदार्थ भी अगर बार-बार रस्सी खींचने से चिकना हो सकता है तो फिर अभ्यास और सुदृढ़ निश्चय से मनुष्य की अल्प या कुठित बुद्वि का विकास क्यों नहीं हो सकता। अतः अभ्यास मानव जीवन के लिए उस महामंत्री के समान है जो असफलता को सफलता में और निराशा को आशा में बदल सकता है।

                अभ्यास और परिश्रम का महत्व केवल मानवजाति में नहीं बल्कि पशु-पक्षी भी इसे पहचानते हैं। नन्ही सी चींटी भोजन का ग्रास ले जाने के लिए परिश्रम करती है। अनेकों बार दाना उसके मुँह से छूटता है जिसे वह बार-बार उठाती है और आगे बढ़ती है, वह हार नहीं मानती, निराश नहीं होती बल्कि परिश्रम करती रहती है और अंत में अपने बिल तक पहुँच ही जाती है। इसी प्रकार पक्षी भी अपना घोसला बनाने के लिए तिनके इकठ्ठे करते हैं, जिनके लिए उन्हें अनेंको बार प्रयास करना पड़ता है। जब पशु-पक्षी परिश्रम से अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ हो सकते हैं तो मानव की बुद्वि सम्पन्न, चेतना संपन्न और क्रियाशील प्राणी है। उसके लिए भला कोई भी कार्य असंभव कैसे हो सकता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जिन्होने अभ्यास और परिश्रम के बल पर अपने जीवन में सफलता प्राप्त की। लार्ड डिजरायली के संबंध में एक कहावत प्रसिद्व है कि वह जब ब्रिटिश संसद में पहली बार बोलने के लिए खड़े हुए तो संबोधन के अतिरिक्त कुछ नहीं बोल पाए। उन्होनें मन ही मन अच्छा वक्ता बनने का निश्चय किया और जंगल में जाकर पेड़-पौधों के सामने बोलने का अभ्यास करने लगे और जब दूसरी बार वह संसद में बोले तो उनका भाषण सुनकर सभी सासंद सदस्य आश्चर्यचकित हो गए।

                सभी कार्य उद्योग करने से ही सिद्व होते हैं, केवल मनोरथ से नहीं। सोये हुए शेर के मुँह में अपने आप पशु प्रविष्ट नहीं हो जाते बल्कि उसे भी जागकर अपने शिकार के लिए, भोजन के लिए परिश्रम करना पड़ता है। जब महाशक्तिशाली सिंह के मुख में भी मृगादि स्वयं नहीं जाते तो मनुष्य के मुख में भोजन अपने आप कैसे जा सकता है। अतः भोजन को प्राप्त करने के लिए मानव को कर्म करना ही पड़ेगा। इसीलिए इस पृथ्वी को कर्म भूमि कहा गया है क्योंकि कर्म ही सृष्टि का आधार है।

                मानव निरन्तर कर्मशील रहता है इसका सबसे सशक्त उदाहरण स्वयं मानव का ही इतिहास है। प्राचीन काल में न तो मानव ने इनती उन्नति की थी न ही पृथ्वी आज के समान थी। धीरे-धीरे मानव ने अपने प्रयत्नों से इसे सुन्दर बनाया। रहने योग्य मकान और भवनों का निर्माण किया तथा सभी प्रकार की भौतिक सुविधाओं को अपने लिए जुटाया। कर्म के कारण ही आज विश्व इस प्रकार प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है।

 तुलसी ने कहा है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भी पाता है। यह उचित सामान्य जीवन पर बिल्कुल सही सिद्व होती है। जो व्यक्ति सदा बुराई में मग्न रहता है उसे एक दिन अपने कर्मो का फल भोगना ही पड़ता है। उसके लिए संसार में उन्नति के द्वार बन्द हो जाते हैं। इस प्रकार कर्म का मानवजीवन पर अत्यन्त ही व्यापक प्रभाव पड़ता है। कर्म विहीन मानव जीवन निष्क्रिय हो जाता है, कर्म केवल शारीरिक या सांसरिक सुखों की ही पूर्ति के लिए आवश्यक नहीं है बल्कि मानसिक, बौद्विक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी कर्म उतना ही आवश्यक है। वास्तव में मानवजीवन का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति करना है, जो कर्म के बिना संभव नहीं। इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तीनों प्रकार के सुखों के लिए कर्म आवश्यक है।

 

निबंध नंबर: 04

 

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat Karat abhyas ke Jadmati hot Sujan

 

 

अभ्यास का महत्त्व : जीवन की लगातार असफलताओं ने बाबर के सारे स्वप्नों को धूल-धुसरित कर दिया था, तथापि यत्न चल रहे थे घोर निराशा के आवरण में पराजय की लपेटे हुए। उसका निश्चय अटल था, अडिग भी। यह हर दिन की पराजय जीत में बदल सकती है, इन्सान को प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस निश्चय ने बाबर को सम्भाला और महान् मुगल साम्राज्य की स्थापना का श्रेय उसे मिला।

इस महान् कार्य में उसकी सहायक बनी वह अनुभव की शक्ति जो बारम्बार असफल होकर उसने उन असफलताओं से बटोरी थी। जीवमात्र बारम्बर भूल करके कुछ ऐसी शक्तियों का उपार्जन कर लेता। जिसके द्वारा इच्छित कार्य करने में उसे किंचित मात्र भी असुविधा नहीं होती, जो प्रारम्भ में उसे दुसाध्य-सा प्रतीत होता है। बाबर की बारम्बार की पराजय ने समर की दक्षता और उन बातों से परिचित करा दिया था, जिनके अभाव में उसे पराजय को अंगीकार करना पड़ा था। जब निरन्तर प्रयास और दृढ़ संकल्प ने उन कमियों को दूर कर दिया तो विजयश्री ने स्वयं आगे बढ़कर उसे पुष्पमाला पहनायी थी।

ऐसे ही एक बार सर्कस देखने का सौभाग्य मिला। उसमें तार पर चलती हुई सुन्दरियों को देखकर मुझे आश्चर्यचकित हो जाना पड़ा। वे एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसी प्रकार आ-जा रही थीं, जिस प्रकार इम लोग पथ-यात्रा किया करते हैं। कभी-कभी खुली सड़क पर भी हमारी यात्रा में विघ्न पड़ जाता है, ठोकर लगते ही हम गिर जाते हैं; लेकिन ये सुन्दरियाँ बिना किसी विघ्न के क्रीड़ा प्रदर्शित करती हुई दर्शकों को हर्षित कर रही थीं। यह सब था अभ्यास का फल। उसी के बल पर वे सबको कौतूहल में डाल रही थीं।

अभ्यास से कार्य सिद्धि : लार्ड डिजराइल के विषय में यह जगत् प्रसिद्ध है कि जब वे पहली बार ब्रिटिश संसद में भाषण देने के लिये खड़े हुए, तो पहला ही शब्द उनके गले में अटककर रह गया, तालियों की गड़गड़ाहट और उपहासमय कहकहों के बीच उन्हें बैठ जाना पड़ा। इस विश्व में कुछ ऐसे होते हैं जो गिर कर उठ ही नहीं सकते और कुछ उछलकर खड़े हो जाते हैं और द्रुतगति से गन्तव्य की ओर अग्रसर हो जाते हैं। लार्ड डिजराइल भी इसी श्रेणी के व्यक्ति थे। वे अभ्यास में संलग्न हुए। एकांतवास में उन्होंने प्रकृति की शरण ली। पेड़-पौधों के समक्ष बोलने का प्रयास किया। यह प्रयास एक वर्ष की दीर्घ अवधि तक चलता रहा। जब एक दिन वे फिर ब्रिटिश संसद में भाषण देने के लिये खड़े हुए, तो संसद में गहरा सन्नाटा छा गया। सदस्यों के रक्त की गति धीमी पड़ गई। इतना प्रभावशाली भाषण उन्होंने जीवन में इससे पूर्व कभी नहीं सुना था।

यह कार्य जादू का नहीं था; अपितु अभ्यास का था, जिसने लार्ड डिजराइल को उन लोगों से प्रतिष्ठा प्रदान करवायी जिन्होंने एक दिन उनका उपहास किया था। इस अभ्यास की शक्ति को ही गीता में भगवान कृष्ण ने योग के नाम से पुकारा है। भारतीय मनीषियों का विश्वास है कि योग से विश्व का कोई भी कार्य दुर्लभ नहीं। दूसरे शब्दों में अभ्यास हर कार्य की पूर्ति का एकमात्र साधन है।

राम नाम का मर्म न आना, वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना”।

गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपने शब्दों द्वारा अभ्यास का राग अलापा है। अवस्थानुसार अभ्यास मानव को मानसिक, आध्यात्मिक और शारीरिक शक्तियाँ प्रदान करता है और कब उसकी साधना फलीभूत हो जाए, उसे पता भी नहीं चलता।

अज्ञान का ज्ञान में परिर्वतन : कौन कह सकता था कि उसी शाखा को जिस पर वह बैठा है, कुल्हाड़े से काटने वाला महामूर्ख, एक दिन संस्कृत साहित्य का मूर्धन्य कवि और यशस्वी नाटककार बन जायेगा; किन्तु सभी इस कटु सत्य से अनभिज्ञ हैं कि महाकवि कालिदास का गौरव प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपने प्रारम्भिक जीवन में एक महामूर्ख से अधिक कुछ नहीं; किन्तु निरन्तर साधना, सच्ची लगन और अविराम ने उसका कायाकल्प कर दिया था, जिसके फलस्वरूप जीवन के शेष दिन यश और गौरव से बीते थे। महापुरुष गोविन्द रानाडे के विषय में भी जगत् प्रसिद्ध है कि उन्हें अभ्यास का शक्ति मंत्र पनघट की पनिहारिन द्वारा प्राप्त हुआ था। पिपासा अवस्था में जब वे पानी पीने के लिए कुएँ पर गये, तो वहाँ पत्थर की मचान पर गड्ढे देख कर पनिहारिन से पूछा, “ये कैसे बन गये हैं ?” उत्तर मिला, “इन मिट्टी के घड़ों के लगातार रखने से।” फिर प्रश्न किया, “ये मचान कई स्थानों से कटी हुई क्यों है ?” फिर उत्तर मिला, इस कोमल रस्सी के बारम्बार आने जाने से। उस दिन की इन बातों से उनके जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया और वे देश के महापुरुषों की श्रेणी में अनायास ही प्रतिष्ठित हो गये।

महाभारत में दुर्योधन के विषय में यह प्रसिद्ध था। कि वह कई-कई दिन तक जल में रह सकता था। उसने निरन्तर अभ्यास द्वारा गोताखोरी की शक्ति प्राप्त कर ली थी। इसी प्रकार अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति ट्रयूमेन ने पुस्तकें पढ़ने में इतना अभ्यास कर लिया कि वे एक ही रात में कई-कई पुस्तकें सरलता के साथ पढ़ डालते थे। वीर योद्धा नेपोलियन के विषय में प्रसिद्ध है कि वह समरांगण में कई-कई सेनापतियों की बातें एक साथ सुन लेता और फिर एक-एक को उपयुक्त निर्देश देता था। कान, चक्षु, वाणी और मस्तिष्क का यह तप, यह साधना केवल अभ्यास से ही प्राप्त होती है।

उपसंहार : यह बात तो हम नित्य प्रति ही समाचारपत्रों में पढ़ते हैं कि अमुक स्थान पर अमुक योगी भूमि के अन्दर निराहार समाधि लगाये हुए है और एक दो मास में बाहर निकल आया है। यह सब कौतुक अभ्यास द्वारा ही प्राप्त होते हैं। अभ्यास अणु शक्ति के समान जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी गति से सबको आश्चर्यान्वित करता रहता है। अभ्यास मस्तिष्क को एक सुनियोजित प्रशिक्षण दे देता है और इन्सान हर मानसिक स्थिति में तदनुकूल आचरण करता है। अत: यह कथन अक्षरशः सत्य है।

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।

रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान ।।”

 

 

निबंध नंबर: 05

करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सजान

Karat Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujan

निरंतर अभ्यास और परिश्रम करने से महामूर्ख भी विद्वान बन जाता है। रस्सी की रगड़ से यदि पत्थर पर भी निशान बन सकता है तो फिर अभ्यास व परिश्रम करने से जड़मति होत सुजान क्यों नहीं हो सकते। अभ्यास करने वाला व्यक्ति ही तो सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता है। प्रसिद्ध वैयाकरण वरदराज के जीवन में यह सूक्ति पूरी तरह चरितार्थ हुई। वरदराज मंटबदधि बालक था और इसी कारण आचार्य ने उसे गुरुकुल से निकाल दिया। एक दिन वरदराज ने कुएँ पर रस्सी की रगड़ से पत्थर पर पड़े निशान देखकर दृढ़ निश्चय किया कि वह निरंतर अभ्यास करेगा और गुरुकुल लौट गया। निरंतर अभ्यास, लगन और परिश्रम रंग लाया और वरदराज ने ज्ञान अर्जित कर एक महान वैयाकरण के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। आगे चलकर यही संस्कृत का प्रकांड पंडित बना और उसने व्याकरण ग्रंथ की रचना की। सच ही कहा है—’करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ अतः निराश होने की आवश्यकता नहीं है।

निबंध नंबर: 06

करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सजान

Karat Karat Abhyas ke Jadmati hot Sujan

 

किसी भी काम को बार-बार करने का नाम अभ्यास है । इसी अभ्यास का दूसरा नाम पुरुषार्थ भी है । इसके बिना मनुष्य किसी प्रकार की भी उन्नति नहीं कर सकता। अभ्यास से ही आत्मयोग्यता की वृद्धि होती है । बिना अभ्यास के न तो मनुष्य विद्या प्राप्त कर सकता है और न ही उसकी भीतरी और बाहरी शक्तियों का विकास होता है ।

कोई व्यक्ति जन्म से ही सर्वसामर्थ्य या पूर्ण-पुरुष उत्पन्न नहीं होता । जन्म लेते ही किसी शूरवीर या महापंडित का बालक भी प्रौढ़ अथवा ज्ञानी नहीं बन जाता । पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा के अभाव में मनुष्य व्यस्क होकर भी बालक जैसा ही निर्बल और अज्ञानी बना रहता है । यदि वह अभ्यास न करे तो लिखना पढ़ना क्या, मनुष्य की बोली बोलना भी नहीं सीख सकता। एक प्रसिद्ध टार्शनिक का कथन है कि मनुष्य के रूप में जन्म लेने पर भी वह समस्त मानव सुलभ विभूतियों से सम्पन्न नहीं हो जाता । इससे यह सिद्ध होता है कि जन्म से मनुष्य असमर्थ, अयोग्य और असभ्य ही होता है । जिन विशेषताओं के कारण वह शक्तिमान, सुयोग्य और सत्यपुरुष बनता है उनको प्राप्त करने कि लिए उसे स्वयं अभ्यास करना पड़ता है ।

अभ्यास द्वारा मनुष्य की कोई शक्ति क्षीण नहीं होती, बल्कि उसमें और अधिक वृद्धि होती है । ज्ञान देने से ज्ञान बढ़ता है । यदि कोई व्यक्ति अपने कार्य में असफल हो जाता है तथा वह निरन्तर अभ्यास करे तो वह उसमें सफल हो जाता है। अंग्रेज़ी में भी एक कहावत है- Practice makes a man perfect. । बच्चा अभ्यास द्वारा ही तुतला कर बोलता हआ शद्ध उच्चारण करना सीखता है। बच्चा गिर-गिर कर ही चलना सीखता है। साइकल,स्कूटर, मोटर गाडी या हवाई जहाज़ चलाना बिना अभ्यास के सम्भव हो ही नहीं सकता। अभ्यास आत्म-विकास का सर्वोत्तम साधन है। कष्ट भोगे बिना कोई भी कर्मठ नहीं बन सकता। परमात्मा ने बुद्धि सब को दी है परन्तु कुछ लोग अभ्यास द्वारा उस बुद्धि का विकास कर लेते हैं और जो लोग बुद्धि से काम नहीं लेते उनकी बुद्धि कुठित हो जाती है जैसे पड़े हुए लोहे को जंग लग जाता है।

सन्त तुकाराम ने ठीक ही कहा है-असाद्य को भी साध्य करने का बस एक ही उपाय है और वह हैअभ्यास एक बार एक मूर्तिकार से किसी ने पूछा, “इस मूर्ति को बनाने में आपका कितना समय लगा है।” मूर्तिकार ने उत्तर दिया-“इसे दस दिन में बनाने के लिए मैंने 30 वर्ष परिश्रम किया है। अर्थात् इसके पीछे तीस वर्ष का अभ्यास है, तब यह 10 दिन में बनी है।

व्यायाम द्वारा अंग-अंग पुष्ट एवं शक्तिशाली बनाने के लिए निरन्तर अभ्यास की ही आवश्यकता होती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

बिना चढ़े कमान के, कैसे लागे तीर

देवताओं ने विष के बाद ही अमृत पाया था। भारतवासियों ने कठोर तपस्या के बाद ही वर्षों की गलामी की जंजीरों को काट कर स्वतन्त्रता प्राप्त की। कोई भी वस्तु सहज ही प्राप्त नहीं हो जाती । योगाभ्यास के बिना उस परम पिता परमात्मा की अनुभूति नहीं होती।

निरन्तर अभ्यास करते रहने से मनुष्य के अनुभव में भी वृद्धि होती है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक चमत्कार क्या बिना अभ्यास के सम्भव हो सकते थे ? कदापि-कदापि नहीं । अभ्यास से ही कार्य में दक्षता आती है और मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है। मनुष्य बुद्धि बल से ही सभी प्रकार के रचनात्मक कार्य करने म सहयोग दे सकता है। कोई व्यक्ति एक सफल चित्रकार,मूर्तिकार या छायाकार तभा बन सकता है यदि उसको इसका अभ्यास होगा । बार-बार काम करने पर उसके हाथ सध जाते हैं और वह एक सफल कलाकार बन जाता है।

अभ्यास केवल व्यक्तिगत प्रगति के लिए ही नहीं, अपितु देश की प्रगति तथा समाज सुधार के लिए भी एक मल मन्त्र है। देश को मज़बूत और शक्तिशाली तथा आर्थिक दृष्टि से स्मृद्ध बनाने के लिए एक व्यक्ति का नहीं बल्कि एक एक व्यक्ति का अभ्यास चाहिए, साधना चाहिए ।

उतावलापन और जल्दबाज़ी अभ्यास के मार्ग में बड़ी बाधाएँ है। धैर्य से ही मीठे फल की प्राप्ति होती है जैसे अंग्रेज़ी में कहावत है-Slow and steady wins the race अर्थात् सहज पक्के सो मीठा होय । यदि आज बीज बो कर हम कल ही उसके फल की आशा करें तो यह कामना निरर्थक होगी ।

जीवन को सुन्दर बनाने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। केवल बातें बनाने से किसी का कोई उद्धार नहीं होता । केवल मुँह से फूंक मार कर तुम बांसुरी नहीं बजा सकते, तुम्हें साथ में अपनी उंगलियों का भी प्रयोग करना पड़ेगा । जीवन की बाँसुरी भी इसी प्रकार बजती है। परिश्रम ही मनुष्य की असली पूंजी है। हमें अपने जीवन का एक पल भी व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए । एक भी पल के व्यर्थ गंवाने का अर्थ है जीवन के एक अंश को व्यर्थ गंवाना ।

निबंध नंबर: 07

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

Karat karat abhyas jadmati hot sujan

  • प्रगति का सूत्र
  • साधनाव्रती
  • गुणात्मक विकास

जिस प्रकार रस्सी के निरंतर आने-जाने से शिला पर निशान पड़ जाते हैं उसी प्रकार निरंतर अभ्यास से किसी कला से अनभिज्ञ व्यक्ति भी उसमें पारंगत हो सकता है। यह ठीक है कि घोड़े को गधा और गधे को घोड़ा नहीं बनाया जा सकता परतु निरंतर अभ्यास से किसी में भरपूर मात्रा में गुणों का विकास अवश्य किया जा सकता है। जब हम किसी काम को सीखना चाहते हैं अथवा सीखकर उसमें दक्षता प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके लिए अभ्यास करना नितांत आवश्यक है। एक अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए उस खेल का निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। एक अच्छा गीतकार बनने के लिए निरंतर स्वर-साधना करनी पडती है, एक अच्छा धावक, घुड़सवार अथवा तैराक बनन का लिए निरंतर अभ्यास अपेक्षित है, इसी प्रकार जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए अभ्यास अनिवार्य है। कोई भी कलाकार बिना अभ्यास के सफलता की चरम सीमा का स्पर्श नहीं कर सकता। परिपक्वता अभ्यास से ही आती है। किसी भी क्षेत्र में ऊँचाइयाँ छूने के पश्चात् भी उसे बनाए रखने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। बिना अभ्यास के गुण निरर्थक हो जाता है।

 

निबंध नंबर: 08

करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान

श्रेष्ठ साहित्यकार अपनी रचना में कभी-कभी कोई ऐसी बात कह देता है। जिसमें कोई-न-कोई जीवाणुत्मव छिपा रहता है। यह अनुभव किसी सनातन सत्य (अथवा सत्यांश) को मुखर करता है और वह भी कुछ गिने-चुने शब्दों में। साहित्यिक शब्दावली में ऐसे कथन को ही ‘सुभाषित’ कहा जाता है। अपनी श्रेष्ठता के कारण यही कथन ‘सूक्ति’ और लोक प्रचलित होने से लोकोक्ति भी कहलाता है। प्रस्तुत काव्य पंक्ति भी (इन्हीं सब गुणों से विभूषित होने के कारण) ऐसी ही एक सुभाषित अथवा सूक्ति या लोकोक्ति है। उक्त शीर्षक हिन्दी के सुप्रसिद्ध नीतिकार वृंद के कथन का अंश है-

करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान।

रस्सी आवत जात ते सिल पर परत निशान ॥

तात्पर्य यह है कि किसी कार्य को पूरा करने के लिए निरन्तर उसका अभ्यास करते रहना चाहिए।

अंग्रेजी भाषा के एक विद्वान का कथन है-

“Man is the Super creature of God. He can do anything in this world, but he don’t know to do?” एक अन्य कथन है- “Practice makes a man perfect.

भारतीय मनीषियों ने बहुत पहले ही ‘अभ्यास’ की महत्ता को जान-पहचान किया था। वैदिक ऋषियों ने इसी को ‘साधना’ कहा तो योगियों ने इसे ही ‘हठयोग’ कहा। जैन और बौद्ध धर्मों ने इसी को ‘नियमान्तर्गत तप’ की संज्ञा प्रदान की। साहित्य जगत में इसको वैयक्तिक प्रतिभा’ माना गया तो शिक्षा जगत् में ‘ज्ञान-प्राप्ति’ का सर्वोत्तम साधन। प्राचीन आचार्यों में बहुत पहले ही ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन बताए – (1) स्वाभाविक अथवा प्रकृति-प्रदत्त और (2) प्रयत्नज।

‘अभ्यास’ स्वाभाविक अथवा प्रकृति प्रदत्त ज्ञान के अन्तर्गत आती है। आज के विज्ञान और मनोविज्ञान इसी का समर्थन करते हैं। महर्षि व्यास ने तो बहुत पहले ही गीतों में श्रीकृष्ण के मुख से स्पष्टततः घोषित कर दिया।

स्वाध्याया अभ्यसत चैव वाड़ यत तप उच्चते।”

तात्पर्य कि व्यक्ति कुछ ज्ञान जो प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा से सीखता है, कुछ स्वध्याय से और कुछ प्रयत्न करके अर्जित करता है। साथ ही साथ यह भी स्मरणीय है कि स्वाभाविक प्रतिभा को भी विकसित करने के लिए ‘अभ्यास’ की आवश्यकता होती है। इस प्रकार हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अभ्यास दोनों अवस्थाओं में न केवल आवश्यक है वरन् स्वाभाविक और अनिवार्य भी है। देश और काल में प्रायः सभी धर्म और सम्प्रदायों, नीति और विद्या, साहित्य और कला सभी में ‘अभ्यास का गुणगान किया गया है।

अभ्यास का क्षेत्र बहुत व्यापक है। दैनिक जीवन से लेकर सामाजिक और राजनीतिक जीवन तक, बालक से लेकर बूढ़े तक, कला और साहित्य से लेकर धर्म और मनोविज्ञान तक। सभी क्षेत्रों में आज अभ्यास देवता का अधिकार है। शिक्षा क्षेत्र में तो यह आधार शिला है। वैसे भी हम देखते हैं कि बालक जीवन भर जो सीखता है और सुनता है, जो कुछ करता है, सभी अभ्यास का परिणाम है। राजनीति और इतिहास, काव्य और कला, साहित्य और संस्कृति, रीति-रिवाज और परम्पराएं, सभी कुछ क्या है? समस्त विज्ञान, विचार प्रणालियां, अन्वेषण और अविष्कार किसका परिणाम है? केवल अभ्यास का। यदि मानव विभिन्न क्षेत्रों में अभ्यास न करता तो- “गिरते हैं सह सवार ही मैदान-ए जंग में” की भावना को हृदयंगम न कर, बार-बार गिरकर उठने का प्रयत्न न करना और बार-बार की असफलताओं से घबराकर अपने प्रयत्नों को बीच में ही छोड़ देता तो आज मानव-समाज की क्या अवस्था होती? वास्तव में आज तक भी मानव समाज की समस्त उपलब्धि प्रगति और मानव जाति की सफलता जीवन के सभी क्षेत्रों में किसी-न-किसी रूप में ‘अभ्यास’ की ही देन है।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी अभ्यास की सहायता से महान् बन गए। रॉबर्ट ब्रूस की कथा किसने नहीं पढ़ी? रंगमंच के साधारण अभिनेता शेक्सपीयर का नाम किसने नहीं सुना, पिकासो, दांते और सिसरो से कौन परिचित नहीं है। भारत में भी बोधा पंडित, कालिदास, वाल्मीकि, रामानुजाचार्य आदि अनेक विभूतियां आज भी अभ्यास की बदौलत प्रख्यात हुए। आधुनिक काल में भी स्वामी रामानुजाचार्य गणित के प्रश्नों का अभ्यास करते-करते ही विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ बन गए। ये तो केवल उदाहरण हैं, वरना विश्व का कोई महापुरुष, कोई विद्वान्, कोई नेता ऐसा नहीं जिसने अपनी उद्देश्य-प्राप्ति के लिए अभ्यास न किया हो।

यह कभी की बात है कि कुछ व्यक्ति अभ्यास न कर पाने और अभ्यास से सफलता पाने की शिकायत करते हैं। भाग्य और प्रकृति, परिस्थिति और वातावरण आलस्य और कायरता की दुहाई देते रहते हैं। यहाँ यह स्वरणीय है कि ‘अभ्यास’ का तात्पर्य केवल हवाई किले बनाने और ख्याली पुलाव पकाने से नहीं है, न ही कोरी महत्त्वकांक्षा और प्राप्ति की इच्छा है। वास्तव में अभ्यास के लिए आवश्यक है। स्वालम्बन, आत्मविश्वास, उच्चप्रेरणा और निरन्तर कर्मशील बना रहना । प्रायः अभ्यास और आदत को एक मान लिया जाता है। किन्तु दोनों सर्वथा भिन्न हैं। अभ्यास की पूर्ति हम सद्प्रेरणा से करते हैं। आदत एक ऐसी रस्सी है जिसे हम रोज मजबूत बनाते हैं। अभ्यास एक ऐसा साधन है जिससे हम रोज उन्नति के पथ पर बढ़ते हैं। इसीलिए हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम अभ्यास के लिए केवल श्रेष्ठ और जीवन के लिए उन्नति-मूलक उद्देश्यों को ही निश्चित करें।

यद्यपि अभ्यास जीवन के समस्त क्षेत्रों में आवश्यक है किन्तु इसका सर्वाधिक महत्त्व विद्यार्थी जीवन में है। क्योंकि यही वह रास है जिसमें हम सम्पूर्ण जीवन के लिए अपना निर्माण करते हैं। प्रायः विद्यार्थी अपने पिछड़ेपन के लिए अनेक बार दूसरों पर दोष मढ़ते हैं। वे भाग्य और परिस्थिति का रोना रोते हैं और परिणाम से भयभीत होते हैं। किन्तु यह सनातन सत्य है कि उनकी प्रतिभा को पूर्णतया प्रकाशित करने वाला, उनकी सफलता और सिद्धि प्राप्त करने वाला उनको बुद्धिमान और पारंगत बनाने वाला एकमात्र ‘अभ्यास’ है। कल्पना कीजिए कि जब अभ्यास के द्वारा जड़मति भी बुद्धिमान बन सकता है तो फिर हप क्यों नहीं बन सकते। वास्तव में अभ्यास-देवता की कृपा से निरक्षर साक्ष्य, दुर्बल-सबल अयोग्य योग्य और मूर्ख बुद्धिमान बन सकता है।” अतएव सदैव ‘करत-करत अभ्यास ते जड़मति सुजान’ – इस कथन पर ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए।

About

The main objective of this website is to provide quality study material to all students (from 1st to 12th class of any board) irrespective of their background as our motto is “Education for Everyone”. It is also a very good platform for teachers who want to share their valuable knowledge.

commentscomments

  1. Pawan Kumar says:

    Nice line

  2. Gurmeet says:

    Very motivating lines and suitably used words..

  3. Vinod Kumar says:

    Motivate me. Thank you

  4. Thanks for help me in study

  5. SHIVA PRAJAPATI says:

    I don’t know more about this line, you are explain so smoothly, so nice of you!
    Thank you so much for guiding me. I’ll be continuously exercising with my passion.
    Thank you so much again. thanks to kalidas and thanks to poet vrind.

  6. Aakash ... says:

    👍 Thank you very much it is helpful for
    me.
    Thanx once again…🙏

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *