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Hindi Essay on “Chunavi Hinsa” , ”चुनावी हिंसा” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

चुनावी हिंसा

Chunavi Hinsa

निबंध संख्या : 01

पहले लोग राजनीति में सेवा भाव से आते थे। जनता की सेवा ने अपना कत्र्तव्य समझते थे। लोगों में देशभक्ति की भावना थी इसलिए लोकतंत्र की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए चुनाव की पवित्रता लोगों का अभीष्ट था। आज परिस्थिति बदली नजर आती है। राजनीति में आते ही लोग अपनी स्वार्थसिद्धि में लिप्त हो जाते हैं। चुनाव में जीतने का मतलब लोग कायापलट होना समझते हैं। राजनीति को धनार्जन का सबसे उत्तम स्त्रोत मानते हैं। मुखिया, पार्षद, सांसद आदि जन प्रतिनिधियों को इतनी सुविधाएं प्राप्त हैं कि जन प्रतिनिधि होने का मतलब स्वर्ग की प्राप्ति समझा जाने लगा है। इन सुविधाओं के साथ-साथ इन्हें असीम अधिकार भी मिले हुए हैं। इन अधिकारों का ये अपनी सुविधाओं के लिए खुलकर दुरूपयोग करते हैं। इतना ही नहीं, सेवा मुक्त हो जाने के बाद भी इन्हें अन्य सुविधाएं मिलती रहती हैं। अतः ये किसी भी प्रकार हारना नहीं चाहते, चाहे इसके लिए इन्हें गलत हथकण्डे क्यों न अपपाने पड़ें। इन्हीं गलत हथकण्डों में से एक है-‘चुनावी हिंसा’।

चुनाव या निवार्चन प्रक्रिया के दौरान होने वाली हिंसा को ’चुनावी हिंसा‘ कहते हैं। प्रायः चुनाव-प्रचार, मतदान एवं विजय-जुलूस के दरम्यान हिंसा की घटनाएं घटती हैं। चुनाव-प्रचार निर्वाचन-प्रक्रिया का एक प्रमुख अंग है। सभी उम्मीदवार अपने-अपने समर्थकों के साथ चुनाव-क्षेत्र में घूम-घूमकर मरदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा करते हैं। इस क्रम में कभी-कभी दो विरोधी उम्मीदवार या इनके समर्थक आपस में वैचारिक रूप से उलझ पड़ते हैं। यह वैचारिक विवाद कहीं-कहीं हिंसा का भी रूप ग्रहण कर लेता है।

हिंसा की सर्वाधिक घटनाएं चुनाव के दिन दिखाई पड़ती हैं। यह तो निर्विवाद है कि आज राजनीति का अपराधिकरण हो गया है। सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपराधी किस्म के व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाया जाता है। इन उम्मीदवारों की अपनी पार्टी के चुनाव-घोषणा पत्र में आस्था नहीं रहती, इन्हें तो अपने बाहुबल पर ही अधिक विश्वास रहता है। इन्हें विश्वास रहता है कि बन्दूक की गोली में और बमो की झोली मेें हमारी विजय है। फलतः चुनाव के दिन ये अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। चुनाव की सुबह से ही दहशत का वातावरण तैयार करते हैं। इतना होने के बावजूद अगर कोई मतदाता हिम्मत दिखाकर मतदान हेतु घर से बाहर निकालता है तो विरोधी उम्मीदवार के गुण्डों द्वारा उनकी हत्या कर दी जाती है। जो उम्मीदवार ज्यादा-से-ज्यादा हिंसा करने की क्षमता रखता है, बूथ उसके कब्जे में आ जाता है और गुण्डे सभी मतदाताओं के बदले मनमाना वाट डाल देते हैं। ऐसे उम्मीदवार जब जीतते हैं तो उनके विजय-जुलूस में भी अभद्रता ही अभद्रता दिखती है। उनके भद्दे नारों से वातावरण उत्तेजक हो जाता है और चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद भी हिंसक घटनाएं हो जाती हैं। चुनाव के र्पूव और बाद में लम्बे समय तक राजनीतिक घात-प्रतिघात में हिंसात्मक घटनाओं की आशंका रहती है।

चुनावी हिंसा रोकने के लिए सरकार के द्वारा उपाय किए जाते हैं। मतदान केन्द्र पर धारा 144 लगाना, संवेदनशील बूथों पर स्थायी पुलिस बल की प्रतिनियुक्ति एवं चल दण्डाधिकारियों की व्यवस्था की जाती है। लेकिन सरकार के इन प्रयत्नों के बावजूद चुुनावी हिंसा में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं हुई है। बल्कि इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि ही देखी जा रही है। अतः चुनावी हिंसा को रोकने सम्बन्धी इन सरकारी प्रयासों को नगण्य ही माना जाएगा। सरकार को इसे रोकने के लिए और कड़े कदम उठाने चाहिए।

लेकिन वर्ष 2005 तथा 2006 में संपन्न हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग के कड़े रूख के चलते चुनावी हिंसा में उल्लेखनीय कमी देखने को मिली, विशेषकर पÛ बंगाल व बिहार के विधानसभा चुनावों में। ये दोनों राज्य चुनावी हिंसा के लिए बदनाम हैं।

चुनावी हिंसा लोकतंत्र के लिए अत्यन्त घातक रोग है। यह अगर इसी भांति बढ़ती रही तो एक दिन लोकतंत्र का पूर्णस्वरूप् लुप्त हो सकता है। इसे पूर्णतः रोक कर ही लोकतंत्र को पूर्णतः सफल बनाया जा सकता है अन्यथा चुनाव एक मखौल बनकर रह जाएगा।

शब्दों की संख्या : 600 

 

भारत में चुनावी हिंसा

Bharat mein Chunavi Hinsa

निबंध संख्या : 02

भारत में आम चुनाव हो या मध्याविधि चुनाव हो या जिला-परिषद या मुखिया का चुनाव हो-यह कल्पना ही नहीं की जा सकती है कि चुनाव संपन्न होगा और कहीं हलकी झड़प भी नहीं होगी। अनुमान यह जताता है कि हिंसा गणनीय होगी या अगणनीय। चुनाव में हिंसा को अनिवार्य बना दिया गया है। इसके लिए सरकार और सरकारी तंत्र दोषी है। भारत में चुनावी हिंसा इतनी बड़ी है कि आम आदमी अब हत्या जैसे संगीन मामले में भी संवेदनशील नहीं रह गया है। दो-चार हत्याओं से तो कोई संवेदना उत्पन्न ही नहीं होती है। लेकिन अब जहां सामूहिक नर-संहार ही लगातार हो रहे हैं, वहां दो-चार हत्याओं की क्या गिनती है।

पहले लोग राजनीति में सेवाभाव से आते थे। जनता की सेवा करना ही उनका मूल उद्देश्य होता था। लेकिन आज उलटी गंगा बह रही है। राजनीति में आते ही लोग अपनी सेवा में जुट जाते हैं। मुखिया, पार्षद, सांसद, विधायक आदि जन प्रतिनिधियों को इतनी सुविधा प्राप्त है कि वे अपनी सुविधाओं में ही खोये रहते हैं। जनता की उन्हें चिंता कहा हैं। वे हिंसा भड़काना जानते हैं उसके परिणाम की उन्हें चिंता कहा हैं? वे किसी भी प्रकार चुनाव जीतना चाहते हैं। चुनाव जीतने के लिए हिंसा का हथकंडा अपनाते हैं। आखिर हिंसा खत्म हो तो कैसे? चुनावी हिंसा सुनियोजित अपराध है, जिसे राजनीतिक प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त होता है।

चुनाव या निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान होने वाली हिंसा को चुनावी हिंसा कहते हैं। सामान्यतः चुनाव प्रचार, मतदान एवं विजय जुलूस के दरम्यान हिंसा की घटनाएं घटती हैं। चुनाव प्रचार निर्वाचन का अंग होता है। इस अवस्था में सभी उम्मीदवार अपने-अपने समर्थकों के साथ घूम-घूमकर मतदाताओं को आकर्षित करने की चेष्टा करते हैं। इस क्रम में कभी-कभी दो विरोधी उम्मीदवारों या उनके समर्थकों के बीच झड़प हो जाती है। इन उम्मीदवारों को अपनी घोषणा-पत्र में आस्था नहीं रहती है। इन्हें तो अपने बाहुबल पर अधिक विश्वास रहता है। इन्हें अपनी बंदूक की गोली पर विश्वास रहता है। चुनाव के लिए अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। चुनाव की वजह से ही बम और गोलियों की आवाजें गूंजने लगती हैं। सर्वत्र भय एवं आतंक का वातावरण बन जाता है। इतने पर भी कोई मतदाता हिम्मत दिखाकर मतदान करने निकलता है, तो विरोधी पक्षों द्वारा उसकी हत्या कर दी जाती है। अब तो चुनाव के ऐन मौके पर विरोधी उम्मीदवारों की हत्या का प्रचलन चल गया है। नये फैशन के अनुसार विजयी उम्मीदवार की हत्या होने लगी है जो उम्मीदवार ज्यादा से ज्यादा हिंसा फैलाता है, वह विजयी माना जाता है। बूथ कब्जे और वह सभी मतदाताओं को अपने पक्ष में करता है। वह विजय हासिल कर लोक तंत्र को लूटतंत्र में बदल देता है। ऐसे उम्मीदवारों के विजय जुलूस में भद्दे-भद्दे नारे लगते रहते हैं। इससे वातावरण दूषित होता है।

चुनावी हिंसा रोकने के लिए सरकार के द्वारा उपाय किए गए हैं। इसके लिए मतदान केंद्रों पर धारा 144 लागू कर दी जाती है। हिंसा के इस दौड़ में 144 धारा महत्त्वहीन हो जाती है। भले ही हाथी के दांत से स्थायी पुलिस बल और चलंत दंड अधिकारी क्यों न प्रतिनियुक्त हों। चुनावी हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। सरकार को स्थिति में बदलाव के लिए कोई अन्य उपाय करना चाहिए। चुनावी हिंसा लोकतंत्र के लिए एक घातक रोग है। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। इसका सबसे बड़ा तत्कालीन कारण राजनीति का अपराधीकरण या अपराधी का राजनीतिकरण है। इससे किसी दिन लोकतंत्र का मूल स्वरूप नष्ट हो जाएगा। इसे रोक कर ही लोकतंत्र को बचाया जा सकेगा। अगर नहीं रुका तो चुनाव मुखौटा बनकर रह जाएगा। हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि चुनाव महायुद्ध नहीं बल्कि पवित्रता और शांति का महापर्व है।

शब्दों की संख्या : 600 

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