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Hindi Essay on “Bhikhari ki Aatma Katha”, “भिखारी की आत्म-कथा” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

भिखारी की आत्म-कथा

Bhikhari ki Aatma Katha 

निबंध नंबर : 01

भिखारी का स्वरूप : समाज में  तिरस्कृत, जीर्णकाय, थका-माँदा, फटे-पुराने वस्त्रों से शरीर छिपाए, मैं भिखारी हूँ। आज मेरे देश में भिक्षा माँगना एक अपराध बन चुका है। इस पर भी लुके-छुपे जीवन का पहिया उसी गति पर चल रहा है ; किन्तु कभी-कभी अपनी इस अवस्था पर रोना आ जाता है और तत्क्षण कोसने लग जाता हूँ प्रारब्ध को भाग्य जो न कराए थोड़ा है। विगत जीवन की स्मृति कभी-कभी शुष्क ओष्ठों पर मुस्कान ला देती है और कभी-कभी अश्रुओं को ढुलकाने के लिए विवश कर देती है। विधाता की इस विडम्बना को देखकर थोड़ा आश्चर्य ही होता है।

आज से कुछ वर्ष पूर्व मेरी ऐसी अवस्था नहीं थी। मैं भी समाज के सम्मानित व्यक्तियों में से एक था। वास्तव में समाज का अंग ही समझ लीजिये। उस समय मैं भी भिक्षावृत्ति को हेय समझता था। भिखारी को अपने द्वार पर से दुत्कार देता था। वैसा ही व्यवहार आज मेरे साथ किया जाता है।

पूर्व जीवन : आज से लगभग 70 वसन्त पूर्व मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। परिवार के सदस्य अधिक थे और आय कम। जीवन निर्वाह बड़ी कठिनाई से हो पाता था। शिक्षा के साधन उपलब्ध न हो सके। परिवार के अधिकांश सदस्य अशिक्षित रह गए; पर मैं किसी तरह आठवीं तक शिक्षा ग्रहण कर सका। इससे आगे शिक्षा लेना सामर्थ्य से बाहर था। परिवार का बोझ पिता और भाइयों पर रहा था। उनकी दृष्टि में शिक्षा का कोई महत्व नहीं था। वे मुझे निठल्ला और बेकार समझते थे। उसी समय प्रथम महायुद्ध छिड़ गया। मेरे मन में भी सेना में भरती होने का विचार उठा। इस विचार को मैंने कार्यान्वित कर लिया। सैनिक जीवन ने मेरे जीवन में एक विशेष परिवर्तन ला दिया। वह थी निश्चिन्तता, जिसके लिए विश्व का हर प्राणी आकुल है। जिसे पाने के लिए मानव अच्छे-बुरे कृत्यों की ओर दौड़ता है। मैंने भी जीवन की बाजी लगाकर इसे पाया था। काम अधिक था और खाने के लिए छूट। वेतन भी इतना मिल जाता था कि परिवार के सदस्यों का रोटी का सहारा हो गया था।

युद्ध की ज्वाला दिन प्रतिदिन भडकती ही गई। मैं भी अन्य साथियों के साथ पत्र-व्यवहार द्वारा सम्पर्क रखने में असमर्थ हो गया। कदाचित् कुछ अवधि उपरांत घर वालों ने मुझे मृतक समझ लिया हो। इस कारण युद्ध में सैनिक कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे थे। सहसा विधाता ने मेरे साथ भी ऐसा ही एक खेल खेला। शत्रु ने रात्रि में धावा बोला। मैं पहरे पर था। घमासान युद्ध हुआ। उसमें मैं बुरी तरह घायल हो गया। कुरूपता के साथ-साथ अपंग भी हो गया। कई मास मिलिट्री अस्पताल में पड़ा रहा। अन्त में लकड़ी के सहारे चलने योग्य हो गया। इस पर भी मैं भगवान् का बारम्बार धन्यवाद कर रहा था कि उसने कम-से-कम प्राण तो बचा दिए।

अपंग और कुरूप अवस्था में जब मैं घर लौटा तो परिवार वालों ने पहचानने में भी असमर्थता प्रगट की। बड़ी कठिनाई से उन्हें विश्वास दिला सका कि मैं युद्ध की भयंकर लपटों से जीवित लौट आया हूँ। विश्वास आने पर उनके चेहरे खुशी से चमक उठे।

अब भी परिवार की आर्थिक अवस्था शोचनीय थी। दो भाई अपनी गृहस्थी के बोझ को ढो रहे थे। मेरे भेजे हुए रुपये से बहन के हाथ पीले कर दिए थे और पिता को इस बड़ी अवस्था में पेट के समाधान के लिए श्रम करना पड़ रहा था। ऐसी अवस्था में मेरे लिए खाली बैठना असम्भव था। पच्चीस रुपये की पेंशन में निर्वाह कठिन था। अभी मैं विषम परिस्थितियों में उलझा हुआ ही था कि पिता जी एक दुर्घटना में अपनी जीवन लीला समाप्त कर बैठे । उनको अन्त्येष्टि के उपरांत भावजों के व्यंग्यों से तंग आकर मुझे घर छोड़ना पड़ा। उस समय मेरा जीवन पूर्णतया अंधकारमय था। मुझ अपंग के लिए रोटी एक समस्या बन गई थी। उसी के हल हेतु मुझे अपना शहर छोड़ना पड़ा।

भिक्षावृत्ति का कारण : नए शहर में पहुँचकर मुझे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो ऐसे काम धन्धे की खोज में था, जिससे दो जून रोटी आराम से मिल सके। बड़ी दौड़ धूप करने के बाद भी मुझे सफलता न मिली। जो कुछ थोड़ी-बहुत नकदी साथ लेकर चला था। वह सब खाने-पीने में उठ चुकी थी। अब भूखों मरने की घडी समीप आ चुकी थी। एक समय ऐसा आया कि चार दिन तक अन्न देवता के दर्शन न हो सके। खाली पेट पर पानी हानि पहुँचाने लगा। रोटी की जुगाड़ में मैं असफल हो गया और एक संध्या को निढाल अवस्था में मुझे दूसरों के समक्ष भिक्षा के लिए हाथ पसारना पड़ा। वे कितने ग्लानि से भरे हुए क्षण थे, जिन्होंने जीवित रहने के लिए मुझसे यह नराधम कर्म करो। दिया था। मैंने अपने शिक्षण काल में रहीम जी का यह दोहा पढ़ा था-”

रहिमन वे नर मर चुके जो कहुँ माँगन जाँहि ।।

उन से पहले वे मुए जिनके मुख निकसत नाँहि ।।”

 

इस परिस्थिति में पहुंचने पर मुझे उक्त दोहा स्मरण हो आया। कछ दिन तो मेरे ग्लानि और क्षुब्धता में बीते। कभी-कभी लोगों की दुत्कार पर क्रोध भी आ जाता था; पर धीरे-धीरे मैं अभ्यस्त हो गया। फिर तो इस भिक्षावृत्ति में जीवन सरल दीखने लगा।

उपसंहार : कुछ शिक्षित होने के कारण अल्प समय में ही भिखारियों में आदरणीय स्थान प्राप्त कर लिया है। आज मैं हर प्रकार से निश्चिन्त हूँ। रुपये पैसे की चिन्ता से मुक्त हूँ। पेट का समाधान बड़े आराम से हो जाता है; पर दु:ख होता है कभी-कभी लोगों के व्यवहार से, उनके कड़वे बोल से। इस अवस्था में मेरा सोया हुआ अहं सजग हो उठता है और जीवन बोझ-सा लगने लगता है। कभी-कभी विगत स्मृतियाँ भी हृदय को मथ जाती हैं। फिर आज तो यह वृत्ति एक अपराध बन गई है। भारतीय सरकार इसको रोकने का भरसक प्रयास कर रही है। क्या इस कार्य में उसे सफलता मिल सकेगी? यह असम्भव-सा प्रतीत होता है; क्योंकि हमारी संख्या इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि समाज की एक इकाई भी मान लिया जाए, तो कोई अत्युक्ति न होगी। इस अपराध को रोकने के लिए कानून की आवश्यकता नहीं अपितु समाज के प्यार की आवश्यकता है।

निबंध नंबर : 02

 

भिखारी की आत्मकथा

Bhikhari ki Atmakatha

भिक्षुक, भिखारी, दरवेश, बैगर आदि कई नामों से पुकारा और जाना जाता है मुझे। हर भाषा और हर देश-काल में मेरा नाम-रूप अलग-अलग हो सकते हैं, पर एक बात हर युग और देश-काल में समान रही एवं रहेगी। वह यह कि मैं मानवीय दया-करुणा का पात्र समझा गया, समझा जाता हूँ ओर आगे भी समझा जाता रहूँगा। हाथ फैलाकर मैं मनुष्यों के मन-मस्तिष्क में अपनी दीनहीन एवं दयनीय दशा के प्रति करुणा का भाव जगा कर, उन से भीख के रूप में आटा. रोटी. कपडा, पैसा आदि पा कर ही मेरा गुजर-बसर हो पाता है। यह बात आरम्भ से चलती आ रही है और हमेशा बनी रहेगी।

सुना है आजकल कुछ लोग हाथ-पैर आदि सभी कुछ सलामत रहते हुए भी भीख माँगने या भिक्षुक होने का नाटक किया करते हैं। उन्हें जरा भी लाज-शर्म नहीं आती। ऐसा कर के इस तरह के धन्धेबाज और बनावटी लोग वास्तविक और असमर्थ भिक्षुकों की राह में भी काँटे बो रहे हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। तभी तो आजकल अन्य सब लोग हम किस्मत के मारे सचमुच के शिक्षकों को भी देखकर, याचना और पुकार सुनकर घृणा से दुत्कार अपनी राह पर बढ़ जाते हैं। उधर धन्धेबाज लोग अपने रूप और वाकजाल से कुछ ऐसा व्यवहार करते है कि कठोर-हृदय-व्यक्ति भी पसीज कर कुछ-न-कुछ दे ही जाता है।

खैर, जाने दीजिए इन बातों को। करेंगे सो भरेंगे। मैं तो आपको अपनी करुण गाथा सुना रहा था। मैं कोई खानदानी या वंश-परम्परा से भीख माँग कर गुजर-बसर करने वाला व्यक्ति नहीं हूँ। कभी मेरे पास भी सब-कुछ था। एक भरा-पूरा अपना घर था। उसमें मेरे वृद्ध माता-पिता, सुन्दर और नवयौवना पत्नी थी। फूल से खिले हुए और सकुमार दो बच्चे भी थे। हमारे पास अपनी काश्तकारी की भूमि तो थी ही, गाँव में अपनी आढत तथा घरेलू सामान की दुकानदारी भी बहुत अच्छी चला करती थी। अपने पिता की सहायता से हम दो भाई काश्तकारी तथा आढ़त-दुकानदारी को सम्हाले हुए थे। अच्छी-आय हो जाती थी। सो हम दोनों भाइयों के परिवार सुख से अपना जीवनयापन कर रहे थे। मैं अपने भाई पर बहुत विश्वास करता था। सारा लेन-देन और हिसाब-किताब मैंने उसी पर छोड़ रखा था। मुझे नहीं पता था कि अपनी पत्नी के बहकावे में आकर अन्दर-ही-अन्दर वह हमारी जड़ें काटने पर तुला हुआ है। उसने जन्म लेकर सब तरह से योग्य बनाने वाले माता-पिता का भी लिहाज नहीं किया और अन्दर-ही-अन्दर सारी आय और सम्पत्ति पर अपना अधिकार कर लिया।

अपने उस सगे भाई की बेईमानी और विश्वासघात का जब तक हमें पता चल पाया, बहुत देर हो चुकी थी। एक दिन बेशर्म और ढीठ बनकर माता-पिता समेत हमें अलग कर दिया। हम सकते में आ गए। माता-पिता आकाश की ओर देखते रह गए। दो-चार दिन निराशा और खिन्नता के बाद अपनी पत्नी से धीरज और सहयोग का आश्वासन पाकर मैंने मन को स्थिर किया। ‘काम करके पेट भरने में कोई शर्म नहीं होती और कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता’ इस तरह की बातें विचार कर मैंने और मेरी पत्नी न आपने ही गॉत में मेहनत-मजदूरी करनी शुरू कर दी। क्योंकि गाँव के सभी लोग हमारे स्वभाव से परिचित थे. इस कारण सभी हमें काम और बदले में उचित मजदूरी दने लगे। फलस्वरूप कुछ दिनों की मेहनत-मशक्कत के बाद हमारा गुजर-बसर ठीक स होने लगा। लेकिन होनी पर तो किसी का कुछ वश नहीं चला करता न सो हमारा भी नहीं चला।

ओह ! कितनी भयानक थी वह रात। सारा गाँव अन्धेरे की चादर ओढ़े सुख-सपनों की नींद में डूब रहा था। शायद रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। तभी अचानक गडगडाहट के साथ हमारी चारपाइयों हिचकोले खाने लगी। दीवारें भी हिलने-डोलने लगी और यह क्या? उफ। हमारे घर की छत एकाएक नीचे आ गई। आस-पड़ोस से भी कान-फोड हाहाकार सुनाई देने लगा। शायद वहाँ सब भी यही कुछ हो रहा था। भडभडा और भुरभरा का धरती फटी तथा गिरकर मकान आदि उसमें समाए जा रहे थे। तभी एकाएक मैं छत गिरने से बेसुध होकर गिर गया। जब होश आया, तब मैं एक तम्बू में था और मेरा इलाज चल रहा था। पता करने पर मालूम हुआ कि मेरे और मेरे भाई के घर-परिवार का नाम तक लेने वाला बाकी नहीं बचा है। और सैकड़ों घरों-लोगों की तरह सभी कुछ धरती माँ की गोद में समा चुका था।

कुछ दिन बाद स्वस्थ हो जाने के बाद हम सभी घायलों को यह कह कर छुट्टी दे दी गई कि जल्दी ही सब का पुनर्वास किया जाएगा। हर तरह की सहायता दी जाएगी। पर सहायता या पुनर्वास तो क्या मिलना था, कुछ दिनों बाद खाना-पीना तक मिलना बन्द हो गया। पता चला सारी सहायता पंच-प्रधान और नेतागण डकार गए हैं। सुनकर पहले से दुःखी और निराश मन और भी दुःखी और निराश हो गया। मर जाने की कोशिशें भी नाकाम रहीं और कोई भी काम करने को जी अब चाहता नहीं था। धीरे-धीरे छीजने तन-मन को बचाने के लिए हाथ फैलाने को विवश होना पड़ा। सो दाता के नाम पर कुछ देते जाना……..बाबू……भगवान् भला करेगा तेरा…..

 

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