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Hindi Essay on “Bharat me Aarthik Udarikaran” , ”भारत में आर्थिक उदारीकरण” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

भारत में आर्थिक उदारीकरण

Bharat me Aarthik Udarikaran 

                सरकारी दावे चाहे कुछ भी कहे, भारत अभी आर्थिक संकट से पूर्ण मुक्ति नहीं पा सका है। राजकोषीय घाटा अभी भी अधिक है, स्फीतिक दवाब बना हुआ है, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि अब आर्थिक स्थिति में वैसी अस्थिरता नहीं है, जैसी की कुछ वर्ष पूर्व थी। सन् 1991 से अब तक सरकार ने समष्टि आर्थिक स्थिरीकरण ;डंबतव म्बवदवउपब ैजंइपसपेंजपवदद्ध की नीति को अपनाया है तथा कुछ ढांचागत सुधार भी किए हैं। प्रायः इन्हें ही नई आर्थिक नीति कहा जाता है। आर्थिक सुधार एक बहुआयामी कार्यवाही है, जिसके तीन प्रमुख उद्देश्य हैं–

-सरकारी खर्चों पर किफायत का अंकुश।

-सरकारी क्षेत्रों में सरकारी बंदिशों मंे कटौती के साथ नियमों को लचीला व खुला बनाना यानी अफसर तथा लालफीताशाही पर प्रहार।

-नेहरू काल से जारी अंतर्मुखी अर्थनीति से हटकर विश्व अर्थव्यवस्था से कदमताल के प्रयास अर्थात आर्थिक भूमण्डलीकरण।

आर्थिक सुधारों को हम इस प्रकार वर्गों में विभक्त करें तो उचित होगा–

  1. उद्योग क्षेत्र,

  2. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार क्षेत्र,

  3. कर क्षेत्र,

  4. सार्वजनिक क्षेत्र, 

  5. कृषि क्षेत्र,

  6. वित्तिय व बैंकिंग क्षेत्र।

                भारत में जिस आर्थिक संकट ने 1991 मंे विकराल रूप धारण किया वे एकाएक नहीं पैदा हुआ, वे काफी वर्षो से अर्थव्यवस्था में मौजूद था। इस आर्थिक संकट के लिए अस्सी के दशक में किया गया समष्टि प्रबन्ध जिम्मेदार था। 1990 में खाड़ी संकट ने भारत के आर्थिक संकट को और बढ़ा दिया। उस समय देश में राजनीतिक अस्थिरता भी थी, इन कारकों ने भारत की अर्थव्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय विश्वास को कम किया जिससे अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी बाजार में देश की साख का स्तर बहुत नीचा हो गया। 1990 का राजकोषीय घाटा-संकट कोई संयोग न था। सन् 80 के दशक में सरकार के गैर विकास व्यव में लगातार वृद्धि से राजकोषीय स्थिति बिगड़ती चली गई थी। राजकोषीय असन्तुलन के सभी मापदण्डों से इसकी पुष्टि होती है। 1991 में भुगतान संतुलन अत्यधिक कमजोर था परन्तु वह अप्रत्याशित नहीं था। जून 1991 में भारत के विदेशी विनिमय कोष इतने अल्प थे कि वह 10 दिनों के लिए आयात के लिए भी पर्याप्त नहीं थे। निश्चित रूप से भारत के लिए यह कठिन परिस्थिति थी, ऐसा लग रहा था कि यह देश ऋण सेवा तथा आयात सम्बन्धी दायित्वों का निर्वाह कर पाने में कभी भी असफल हो जाएगा।

                बढ़ते स्फीतिक दबाव ने भारतीय अर्थव्यवसथा को संकट की स्थिति तक ले जाने में महती भूमिका निभाई। अस्सी के दशक के बाद के पांच वर्षो में स्थिति अधिक गंभीर नहीं थी क्योंकि थोक कीमतों के आधार पर मुद्रास्फीति की औसत वार्षिक दर 6.7% थी लेकिन 1990-91 में थोक कीमतों के आधार पर मुद्रास्फीति की दर 10.3 वार्षिक हो गई। इसी वर्ष उपभोक्ता कीमत सूचकांक 11% ऊपर उठ गया। मुद्रास्फीति से सम्बन्धित सबसे चिंताजनक बात यह थी कि लगातार तीन वर्षों तक अच्छे मानसून के बावजूद खाद्य वस्तुओं की कीमतों में काफी वृद्धि हुई।

                1990-91 की इस संकटग्रस्त स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने आर्थिक सुधारों को लागू करने का निर्णय किया। प्रथम समग्र आर्थिक स्थिरीकरण तथा द्वितीय ढांचागत सुधार। समष्टि आर्थिक स्थिरीकरण का सम्बन्ध मात्र प्रबन्धन से है, जबकि ढांचागत सुधार अर्थव्यवस्था की पूर्ति पक्ष की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करते हैं।

                सरकार ने आर्थिक उदारीकरण की दिशा में जो कदम उठाए, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

0              समष्टि आर्थिक स्थिरीकरण

0              मुद्रास्फीति पर प्रभावी नियंत्रण

0              राजकोषीय समायोजन

0              भुगतान संतुलन में समायोजन

0              ढांचागत सुधार

0              व्यापार व पूंजी प्रवाह सुधार

0              औद्योगिक नियंत्रण समाप्त करना

0              उद्योगों का स्थानीयकरण                                  

0              सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार

0              वित्तीय क्षेत्र में सुधार

0              राजकोषीय, राजस्व तथा कर आधार का विस्तार करना जरूरी है, परन्तु सरकार ने वित्तीयसुधार कार्यक्रम करों की दरों में कमी करके तथा पंूजीगत व्यव में कटौती के द्वारा प्रारम्भ किया।

सरकार ने बिना यह सुनिश्चित किए ही कि निजी क्षेत्र तथा विदेशी निवेशक निवेश की मात्रा बढ़ाएंगे, सरकारी पुजीगत व्यय में कटौती कर डाली।

घरेलू पूंजीगत पदार्थ क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के विकास की योजना तैयार किए  बिना ही पंूजीगत वस्तुओं के आयात के बारे में उदारीकरण नीति को कार्यान्वित कर दिया गया।

                सरकारी नवरत्न कंपनियों का भी आंशिक निजीकरण करने का प्रयास किया गया।

                सुधार लागू करने मंे बिला वजह जल्दबाजी की गई। ’इकाॅनोमिक एण्ड पाॅलिटिकल वीकली रिसर्च फाउन्डेशन’ ने स्पष्ट किया है कि औद्योगिक संवृद्धि में तेजी के साथ गिरावट, पूंजी पदार्थ उद्योगों की संवृद्धि में कमी, निर्यात में सापेक्ष रूप से निर्मित माल के महत्व में कमी और औद्योगिक रोजगार के विस्तार में बाधा तेजी के साथ सुधारों के कुछ स्पष्ट प्रभाव हैं।

                युक्ति के अभिन्न अंग के रूप में मानव विकास लक्ष्यों का अभाव नई आर्थिक नीति के मुख्य दोषों में से है। मानव विकास के लक्ष्य ढांचागत समायोजनों की युक्ति के अभिन्न अंग होने चाहिए, परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया है। फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था ने मुक्त बाजार के इस दौर में सभी क्षेत्रों में प्रगति की है, यह नई आर्थिक नीति की ही देन है।

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